चंद्रकांता-3 / बाबू देवकीनन्दन खत्री

तीसरा अध्याय

बयान - 1

वह नाजुक औरत जिसके हाथ में किताब है और जो सब औरतों के आगे-आगे आ रही है, कौन और कहाँ की रहने वाली है, जब तक यह न मालूम हो जाए तब तक हम उसको वनकन्या के नाम से लिखेंगे।

धीरे-धीरे चल कर वनकन्या जब उन पेड़ों के पास पहुँची जिधर आड़ में कुँवर वीरेंद्रसिंह और फतहसिंह छिपे खड़े थे, तो ठहर गई और पीछे फिर के देखा। इसके साथ एक और जवान, नाजुक तथा चंचल औरत अपने हाथ में एक तस्वीर लिए हुए चल रही थी जो वनकन्या को अपनी तरफ देखते देख आगे बढ़ आई। वनकन्या ने अपनी किताब उसके हाथ में दे दी और तस्वीर उससे ले ली।

तस्वीर की तरफ देख लंबी साँस ली, साथ ही आँखें डबडबा आईं, बल्कि कई बूँद आँसुओं की भी गिर पड़ीं। इस बीच में कुमार की निगाह भी उसी तस्वीर पर जा पड़ी, एकटक देखते रहे और जब वनकन्या बहुत दूर निकल गई तब फतहसिंह से बातचीत करने लगे।

कुमार – ‘क्यों फतहसिंह, यह कौन है कुछ जानते हो?’

फतहसिंह - ‘मैं कुछ भी नहीं जानता मगर इतना कह सकता हूँ कि किसी राजा की लड़की है।’

कुमार – ‘यह किताब जो इसके हाथ में है जरूर वही है जो मुझको तिलिस्म से मिली थी, जिसको शिवदत्त के ऐयारों ने चुराया था, जिसके लिए तेजसिंह और बद्रीनाथ में बदाबदी हुई और जिसकी खोज में हमारे ऐयार लगे हुए हैं।’

फतहसिंह - ‘मगर फिर वह किताब इसके हाथ कैसे लगी?’

कुमार – ‘इसका तो ताज्जुब हुआ है मगर इससे भी ज्यादा ताज्जुब की एक बात और है, शायद तुमने ख्याल नहीं किया।’

फतहसिंह – ‘नहीं, वह क्या?’

कुमार – ‘वह तस्वीर भी मेरी ही है जिसको बगल वाली औरत के हाथ से उसने लिया था।’

फतहसिंह - ‘यह तो आपने और भी आश्चर्य की बात सुनाई।’

कुमार – ‘मैं तो अजब हैरानी में पड़ा हूँ, कुछ समझ ही नहीं आता कि क्या मामला है। अच्छा चलो पीछे-पीछे देखें ये सब जाती कहाँ हैं।’

फतहसिंह - ‘चलिए।’

कुमार और फतहसिंह उसी तरफ चले जिधर वे औरतें गई थीं। थोड़ी ही दूर गए होंगे कि पीछे से किसी ने आवाज दी। फिर के देखा तो तेजसिंह पर नजर पड़ी। ठहर गए, जब पास पहुँचे उन्हें घबराए हुए और बदहोशो-हवास देख कर पूछा - ‘क्यों क्या है जो ऐसी सूरत बनाए हो?’

तेजसिंह ने कहा - ‘है क्या, बस हम आपसे जिंदगी भर के लिए जुदा होते हैं।’

इससे ज्यादा न बोल सके, गला भर आया, आँखों से आँसुओं की बूँदे टपाटप गिरने लगीं। तेजसिंह की अधूरी बात सुन और उनकी ऐसी हालत देख कुमार भी बेचैन हो गए, मगर यह कुछ भी न जान पड़ा कि तेजसिंह के इस तरह बेदिल होने का क्या सबब है।

फतहसिंह से इनकी यह दशा देखी न गई। अपने रूमाल से दोनों की आँखें पोंछीं, इसके बाद तेजसिंह से पूछा - ‘आपकी ऐसी हालत क्यों हो रही है, कुछ मुँह से तो कहिए। क्या सबब है जो जन्म भर के लिए आप कुमार से जुदा होंगे?’

तेजसिंह ने अपने को सँभाल कर कहा - ‘तिलिस्मी किताब हम लोगों के हाथ न लगी और न मिलने की कोई उम्मीद है इसलिए अपने कौल पर सिर मुंड़ा के निकल जाना पड़ेगा।’

इसका जवाब कुँवर वीरेंद्रसिंह और फतहसिंह कुछ दिया ही चाहते थे कि देवीसिंह और पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी भी घूमते हुए आ पहुँचे। ज्योतिषी जी ने पुकार कर कहा - ‘तेजसिंह, घबराइए मत, अगर आपको किताब न मिली तो उन लोगों के पास भी न रही, जो मैंने पहले कहा था वही हुआ, उस किताब को कोई तीसरा ही ले गया।’

अब तेजसिंह का जी कुछ ठिकाने हुआ। कुमार ने कहा - ‘वाह खूब, आप भी रोए और मुझको भी रुलाया। जिसके हाथ में किताब पहुँची उसे मैंने देखा मगर उसका हाल कहने का कुछ मौका तो मिला नहीं, तुम पहले से ही रोने लगे।’ इतना कह के कुमार ने उस तरफ देखा जिधर वे औरतें गई थीं मगर कुछ दिखाई न पड़ा।

तेजसिंह ने घबरा कर कहा - ‘आपने किसके हाथ में किताब देखी? वह आदमी कहाँ है?’

कुमार ने जवाब दिया - ‘मैं क्या बताऊँ कहाँ है, चलो उस तरफ शायद दिखाई दे जाए, हाय विपत-पर-विपत बढ़ती ही जाती है।’

आगे-आगे कुमार तथा पीछे-पीछे तीनों ऐयार और फतहसिंह उस तरफ चले जिधर वे औरतें गई थीं, मगर तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी हैरान थे कि कुमार किसको खोज रहे हैं, वह किताब किसके हाथ लगी है, या जब देखा ही था तो छीन क्यो न लिया। कई दफा चाहा कि कुमार से इन बातों को पूछें मगर उनको घबराए हुए इधर-उधर देखते और लंबी-लंबी साँसें लेते देख तेजसिंह ने कुछ न पूछा। पहर भर तक कुमार ने चारों तरफ खोजा मगर फिर उन औरतों पर निगाह न पड़ी। आखिर आँखें डबडबा आईं और एक पेड़ के नीचे खड़े हो गए।

तेजसिंह ने पूछा - ‘आप कुछ खुलासा कहिए भी तो कि क्या मामला है?’

कुमार ने कहा - ‘अब इस जगह कुछ न कहेंगे। लश्कर में चलो, फिर जो कुछ है सुन लेना।’

सब कोई लश्कर में पहुँचे। कुमार ने कहा - ‘पहले तिलिस्मी खँडहर में चलो। देखें बद्रीनाथ की क्या कैफियत है।’ यह कह कर खँडहर की तरफ चले, ऐयार सब पीछे-पीछे रवाना हुए। खँडहर के दरवाजे के अंदर पैर रखा ही था कि सामने से पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल वगैरह आते दिखाई पड़े।

कुमार – ‘यह देखो वह लोग इधर ही चले आ रहे हैं। मगर हैं, यह बद्रीनाथ छूट कैसे गए?’

तेजसिंह – ‘बड़े ताज्जुब की बात है।’

देवीसिंह – ‘कहीं किताब उन लोगों के हाथ तो नहीं लग गई। अगर ऐसा हुआ तो बड़ी मुश्किल होगी।’

फतहसिंह - ‘इससे निश्चिंत रहो, वह किताब इनके हाथ अब तक नहीं लगी। हाँ, आगे मिल जाए तो मैं नहीं कह सकता, क्योंकि अभी थोड़ी ही देर हुई है वह दूसरे के हाथ में देखी जा चुकी है।

इतने में बद्रीनाथ वगैरह पास आ गए। पन्नालाल ने पुकार के कहा - ‘क्यों तेजसिंह, अब तो हार गए न।’

तेजसिंह – ‘हम क्यों हारे।’

बद्रीनाथ – ‘क्यों नहीं हारे, हम छूट भी गए और किताब भी न दी।’

तेजसिंह – ‘किताब तो हम पा गए, तुम चाहे अपने आप छूटो या मेरे छुड़ाने से छूटो। किताब पाना ही हमारा जीतना हो गया, अब तुमको चाहिए कि महाराज शिवदत्त को छोड़ कर कुमार के साथ रहो।’

बद्रीनाथ – ‘हमको वह किताब दिखा दो, हम अभी ताबेदारी कबूल करते हैं।’

तेजसिंह – ‘तो तुम ही क्यों नहीं दिखा देते, जब तुम्हारे पास नहीं तो साबित हो गया कि हम पा गए।’

बद्रीनाथ – ‘बस-बस, हम बेफिक्र हो गए, तुम्हारी बातचीत से मालूम हो गया कि तुमने किताब नहीं पाई और उसे कोई तीसरा ही उड़ा ले गया, अभी तक हम डरे हुए थे।’

देवीसिंह – ‘फिर आखिर हारा कौन यह भी तो कहो?’

बद्रीनाथ – ‘कोई भी नहीं हारा।’

कुमार – ‘अच्छा यह तो कहो तुम छूटे कैसे।’

बद्रीनाथ – ‘बस ईश्वर ने छुड़ा दिया, जानबूझ के कोई तरकीब नहीं की गई। पन्नालाल ने उसके सिर पर एक लकड़ी रखी, उस पत्थर के आदमी ने मुझको छोड़ लकड़ी पकड़ी, बस मैं छूट गया। उसके हाथ में वह लकड़ी अभी तक मौजूद है।’

कुमार – ‘अच्छा हुआ, दोनों की ही बात रह गई।’

बद्रीनाथ – ‘कुमार, मेरा जी तो चाहता है कि आपके साथ रहूँ मगर क्या करूँ, नमकहरामी नहीं कर सकता, कोई तो सबब होना चाहिए। अब मुझे आज्ञा हो तो विदा होऊँ।’

कुमार – ‘अच्छा जाओ।’

ज्योतिषी – ‘अच्छा हमारी तरफ नहीं होते तो न सही मगर ऐयारी तो बंद करो।’

तेजसिंह – ‘वाह ज्योतिषी जी, आखिर वेदपाठी ही रहे। ऐयारी से क्या डरना? ये लोग जितना जी चाहें जोर लगा लें।’

पन्नालाल – ‘खैर, देखा जाएगा, अभी तो जाते है, जय माया की।’

तेजसिंह – ‘जय माया की।’

बद्रीनाथ वगैरह वहाँ से चले गए। फिर कुमार भी तिलिस्म में न गए और अपने डेरे में चले आए। रात को कुमार के डेरे में सब ऐयार और फतहसिंह इकट्ठे हुए। दरबानों को हुक्म दिया कि कोई अंदर न आने पाए।

तेजसिंह ने कुमार से पूछा - ‘अब बताइए किताब किसके हाथ में देखी थी, वह कौन है, और आपने किताब लेने की कोशिश क्यों नहीं की?’

कुमार ने जवाब दिया - ‘यह तो मैं नहीं जानता कि वह कौन है लेकिन जो भी हो, अगर कुमारी चंद्रकांता से बढ़ के नहीं है तो किसी तरह कम भी नहीं है। उसके हुस्न ने मुझे उससे किताब छिनने न दी।’

तेजसिंह - (ताज्जुब से) ‘कुमारी चंद्रकांता से और उस किताब से क्या संबंध? खुलासा कहिए तो कुछ मालूम हो।’

कुमार – ‘क्या कहें हमारी तो अजब हालत है।’ (ऊँची साँस ले कर चुप ही रहे)

तेजसिंह – ‘आपकी विचित्र ही दशा हो रही है, कुछ समझ में नहीं आता। (फतहसिंह की तरफ देख के) आप तो इनके साथ थे, आप ही खुलासा हाल कहिए, यह तो बारह दफा लंबी साँस लेगे तो डेढ़ बात कहेंगे। जगह-जगह तो इनको इश्क पैदा होता है, एक बला से छूटे नहीं दूसरी खरीदने को तैयार हो गए।’

फतहसिंह ने सब हाल खुलासा कह सुनाया। तेजसिंह बहुत हैरान हुए कि वह कौन थी और उसने कुमार को पहले कब देखा, कब आशिक हुई और तस्वीर कैसे उतरवा मँगाई?

ज्योतिषी जी ने कई दफा रमल फेंका मगर खुलासा हाल मालूम न हो सका। हाँ, इतना कहा कि किसी राजा की लड़की है। आधी रात तक सब कोई बैठे रहे, मगर कोई काम न हुआ, आखिर यह बात ठहरी कि जिस तरह बने उन औरतों को ढूँढ़ना चाहिए।

सब कोई अपने डेरे में आराम करने चले गए। रात-भर कुमार को वनकन्या की याद ने सोने न दिया। कभी उसकी भोली-भाली सूरत याद करते, कभी उसकी आँखों से गिरे हुए आँसुओं के ध्यान में डूबे रहते। इसी तरह करवटें बदलते और लंबी साँस लेते रात बीत गई बल्कि घंटा भर दिन चढ़ आया। पर कुमार अपने पलँग पर से न उठे।

तेजसिंह ने आ कर देखा तो कुमार चादर से मुँह लपेटे पड़े हैं, मुँह की तरफ का बिल्कुल कपड़ा गीला हो रहा है। दिल में समझ गए कि वनकन्या का इश्क पूरे तौर पर असर कर गया है, इस वक्त नसीहत करना भी उचित नहीं। आवाज दी - ‘आप सोते हैं या जागते हैं?’

कुमार - (मुँह खोल कर) ‘नहीं, जागते तो हैं।’

तेजसिंह – ‘फिर उठे क्यों नहीं? आप तो रोज सवेरे ही स्नान-पूजा से छुट्टी कर लेते हैं, आज क्या हुआ?’

‘नहीं कुछ नहीं’ कहते हुए कुमार उठ बैठे। जल्दी-जल्दी स्नान से छुट्टी पा कर भोजन किया। तेजसिंह वगैरह इनके पहले ही सब कामों से निश्चित हो चुके थे, उन लोगों ने भी कुछ भोजन कर लिया और उन औरतों को ढूँढ़ने के लिए जंगल में जाने को तैयार हुए। कुमार ने कहा - ‘हम भी चलेंगे।’ सभी ने समझाया कि आप चल कर क्या करेंगे हम लोग पता लगाते हैं, आपके चलने से हमारे काम में हर्ज होगा। मगर कुमार ने कहा - ‘कोई हर्ज न होगा, हम फतहसिंह को अपने साथ लेते चलते हैं, तुम्हारा जहाँ जी चाहे घूमना, हम उसके साथ इधर-उधर फिरेंगे।’

तेजसिंह ने फिर समझाया कि कहीं शिवदत्त के ऐयार लोग आपको धोखे में न फँसा लें, मगर कुमार ने एक मानी, आखिर लाचार हो कर कुमार और फतहसिंह को साथ ले जंगल की तरफ रवाना हुए।

थोड़ी दूर घने जंगल में जा कर उन लोगों को एक जगह बैठा कर तीनों ऐयार अलग-अलग उन औरतों की खोज में रवाना हुए, ऐयारों के चले जाने पर कुँवर वीरेंद्रसिंह फतहसिंह से बातें करने लगे मगर सिवाय वनकन्या के कोई दूसरा जिक्र कुमार की जुबान पर न था।

बयान - 2

कुँवर वीरेंद्रसिंह बैठे फतहसिंह से बातें कर रहे थे कि एक मालिन जो जवान और कुछ खूबसूरत भी थी हाथ में जंगली फूलों की डाली लिए कुमार के बगल से इस तरह निकली जैसे उसको यह मालूम नहीं कि यहाँ कोई है। मुँह से कहती जाती थी - ‘आज जंगली फूलों का गहना बनाने में देर हो गई, जरूर कुमारी खफा होंगी, देखें क्या दुर्दशा होती है।’

इस बात को दोनों ने सुना। कुमार ने फतहसिंह से कहा - ‘मालूम होता है यह उन्हीं की मालिन है, इसको बुला के पूछो तो सही।’

फतहसिंह ने आवाज दी, उसने चौंक कर पीछे देखा, फतहसिंह ने हाथ के इशारे से फिर बुलाया, वह डरती-काँपती उनके पास आ गई। फतहसिंह ने पूछा - ‘तू कौन है और फूलों के गहने किसके वास्ते लिए जा रही है?’

उसने जवाब दिया - ‘मैं मालिन हूँ, यह नहीं कह सकती कि किसके यहाँ रहती हूँ, और ये फूल के गहने किसके वास्ते लिए जाती हूँ। आप मुझको छोड़ दें, मैं बड़ी गरीब हूँ, मेरे मारने से कुछ हाथ न लगेगा, हाथ जोड़ती हूँ, मेरी जान मत लीजिए।’

ऐसी-ऐसी बातें कह मालिन रोने और गिड़गिड़ाने लगी। फूलों की डलियाँ आगे रखी हुई थी जिनकी तेज खुशबू फैल रही थी। इतने में एक नकाबपोश वहाँ आ पहुँचा और कुमार की तरफ मुँह करके बोला - ‘आप इसके फेर में न पड़ें, यह ऐयार है, अगर थोड़ी देर और फूलों की खुशबू दिमाग में चढ़ेगी तो आप बेहोश हो जाएँगे।’

उस नकाबपोश ने इतना कहा ही था कि वह मालिन उठ कर भागने लगी, मगर फतहसिंह ने झट हाथ पकड़ लिया। सवार उसी वक्त चला गया। कुमार ने फतहसिंह से कहा - ‘मालूम नहीं सवार कौन है, और मेरे साथ यह नेकी करने की उसको क्या जरूरत थी?’

फतहसिंह ने जवाब दिया - ‘इसका हाल मालूम होना मुश्किल है क्योंकि वह खुद अपने को छिपा रहा है, खैर, जो हो यहाँ ठहरना मुनासिब नहीं, देखिए अगर यह सवार न आता तो हम लोग फँस ही चुके थे।’

कुमार ने कहा - ‘तुम्हारा यह कहना बहुत ठीक है, खैर, अब चलो और इसको अपने साथ लेते चलो, वहाँ चल कर पूछ लेंगे कि यह कौन है।’

जब कुमार अपने खेमे में फतहसिंह और उस ऐयार को लिए हुए पहुँचे तो बोले - ‘अब इससे पूछो इसका नाम क्या है?’ फतहसिंह ने जवाब दिया - ‘भला यह ठीक-ठीक अपना नाम क्यों बताएगा, देखिए मैं अभी मालूम किए लेता हूँ।’

फतहसिंह ने गरम पानी मँगवा कर उस ऐयार का मुँह धुलाया, अब साफ पहचाने गए कि यह पंडित बद्रीनाथ हैं। कुमार ने पूछा - ‘क्यों अब तुम्हारे साथ क्या किया जाए?’

बद्रीनाथ ने जवाब दिया - ‘जो मुनासिब हो कीजिए।’

कुमार ने फतहसिंह से कहा - ‘इनकी तुम हिफाजत करो, जब तेजसिंह आएँगे तो वही इनका फैसला करेंगे।’ यह सुन फतहसिंह बद्रीनाथ को ले अपने खेमे में चले गए। शाम को बल्कि कुछ रात बीते तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी लौट कर आए और कुमार के खेमे में गए।

उन्होंने पूछा - ‘कहो कुछ पता लगा?’

तेजसिंह – ‘कुछ पता न लगा, दिन भर परेशान हुए मगर कोई काम न चला।’

कुमार - ‘(ऊँची साँस ले कर) ‘फिर अब क्या किया जाएगा?’

तेजसिंह – ‘किया क्या जाएगा, आज-कल में पता लगेगा ही।’

कुमार – ‘हमने भी एक ऐयार को गिरफ्तार किया है।’

तेजसिंह – ‘हैं, किसको? वह कहाँ है।’

कुमार – ‘फतहसिंह के पहरे में है, उसको बुला के देखो कौन है।’

देवीसिंह को भेज कर फतहसिंह को मय ऐयार के बुलवाया। जब बद्रीनाथ की सूरत देखी तो खुश हो गए और बोले - ‘क्यों, अब क्या इरादा है?’

बद्रीनाथ – 'जो पहले था वही अब भी है?’

तेजसिंह – ‘अब भी शिवदत्त का साथ छोड़ोगे या नहीं?’

बद्रीनाथ – ‘महाराज शिवदत्त का साथ क्यों छोड़ने लगे?’

तेजसिंह –‘तो फिर कैद हो जाओगे।’

बद्रीनाथ – ‘चाहे जो हो।’

तेजसिंह – ‘यह न समझना कि तुम्हारे साथी लोग छुड़ा ले जाएँगे, हमारा कैद-खाना ऐसा नहीं है।’

बद्रीनाथ – ‘उस कैदखाने का हाल भी मालूम है, वहाँ भेजो भी तो सही।’

देवीसिंह – ‘वाह रे निडर।’

तेजसिंह ने फतहसिंह से कहा - ‘इनके ऊपर सख्त पहरा मुकर्रर कीजिए। अब रात हो गई है, कल इनको बड़े घर पहुँचाया जाएगा।’

फतहसिंह ने अपने मातहत सिपाहियों को बुला कर बद्रीनाथ को उनके सुपुर्द किया, इतने ही में चोबदार ने आ कर एक खत उनके हाथ में दिया और कहा कि एक नकाबपोश सवार बाहर हाजिर है जिसने यह खत राजकुमार को देने के लिए दिया है। तेजसिंह ने लिफाफे को देखा, यह लिखा हुआ था -

‘कुँवर वीरेंद्रसिंह जी के चरण कमलों में - ‘तेजसिंह ने कुमार के हाथ में दिया, उन्होंने खोल कर पढ़ा -

बरवा

‘सुख सम्पत्ति सब त्याग्यो जिनके हेत।

वे निरमोही ऐसे, सुधिहु न लेत॥

राज छोड़ बन जोगी भसम रमाय।

विरह अनल की धूनी तापत हाय॥’

- कोई वियोगिनी

पढ़ते ही आँखें डबडबा आईं, बँधे गले से अटक कर बोले - ‘उसको अंदर बुलाओ जो खत लाया है।’ हुक्म पाते ही चोबदार उस नकाबपोश सवार को लेने बाहर गया मगर तुरंत वापस आ कर बोला - ‘वह सवार तो मालूम नहीं कहाँ चला गया।’

इस बात को सुनते ही कुमार के जी को कितना दुख हुआ वे ही जानते होंगे। वह खत तेजसिंह के हाथ में दिया, उन्होंने भी पढ़ा - ‘इसके पढ़ने से मालूम होता है यह खत उसी ने भेजा है जिसकी खोज में दिन भर हम लोग हैरान हुए और यह तो साफ ही है कि वह भी आपकी मुहब्बत में डूबी हुई है, फिर आपको इतना रंज न करना चाहिए।’

कुमार ने कहा - ‘इस खत ने तो इश्क की आग में घी का काम किया। उसका ख्याल और भी बढ़ गया घट कैसे सकता है। खैर, अब जाओ तुम लोग भी आराम करो, कल जो कुछ होगा देखा जाएगा।’

बयान - 3

कल रात से आज की रात कुमार को और भी भारी गुजरी। बार-बार उस बरवे को पढ़ते रहे। सवेरा होते ही उठे, स्नान-पूजा कर जंगल में जाने के लिए तेजसिंह को बुलाया, वे भी आए। आज फिर तेजसिंह ने मना किया मगर कुमार ने न माना, तब तेजसिंह ने उन तिलिस्मी फूलों में से गुलाब का फूल पानी में घिस कर कुमार और फतहसिंह को पिलाया और कहा कि अब जहाँ जी चाहे घूमिए, कोई बेहोश करके आपको नहीं ले जा सकता, हाँ जबर्दस्ती पकड़ ले तो मैं नहीं कह सकता।’

कुमार ने कहा - ‘ऐसा कौन है जो मुझको जबर्दस्ती पकड़ ले।’

पाँचों आदमी जंगल में गए, कुछ दूर कुमार और फतहसिंह को छोड़ तीनों ऐयार अलग-अलग हो गए। कुँवर वीरेंद्रसिंह फतहसिंह के साथ इधर-उधर घूमने लगे। घूमते-घूमते कुमार बहुत दूर निकल गए, देखा कि दो नकाबपोश सवार सामने से आ रहे हैं। जब कुमार से थोड़ी दूर रह गए तो एक सवार घोड़े पर से उतर पड़ा और जमीन पर कुछ रख के फिर सवार हो गया। कुमार उसकी तरफ बढ़े, जब पास पहुँचे तो वे दोनों सवार यह कह के चले गए कि इस किताब और खत को ले लीजिए।

कुमार ने पास जा कर देखा तो वही तिलिस्मी किताब नजर पड़ी, उसके ऊपर एक खत और बगल में कलम दवात और कागज भी मौजूद पाया। कुमार ने खुशी-खुशी उस किताब को उठा लिया और फतहसिंह की तरफ देख के बोले - ‘यह किताब दे कर दोनों सवार चले क्यों गए सो कुछ समझ में नहीं आता, मगर बोली से मालूम होता है कि वह सवार औरत है जिसने मुझे किताब उठा लेने के लिए कहा। देखें खत में क्या लिखा है?’ यह कह खत खोल पढ़ने लगे, यह लिखा था-

‘मेरा जी तुमसे अटका है और जिसको तुम चाहते हो वह बेचारी तिलिस्म में फँसी है। अगर उसको किसी तरह की तकलीफ होगी तो तुम्हारा जी दुखी होगा। तुम्हारी खुशी से मुझको भी खुशी है यह समझ कर किताब तुम्हारे हवाले करती हूँ। खुशी से तिलिस्म तोड़ो और चंद्रकांता को छुड़ाओ, मगर मुझको भूल न जाना, तुम्हें उसी की कसम जिसको ज्यादा चाहते हो। इस खत का जवाब लिख कर उसी जगह रख देना जहाँ से किताब उठाओगे।’

खत पढ़ कर कुमार ने तुरंत जवाब लिखा -

‘इस तिलिस्मी किताब को हाथ में लिए मैंने जिस वक्त तुमको देखा उसी वक्त से तुम्हारे मिलने को जी तरस रहा है। मैं उस दिन अपने को बड़ा भाग्यवान जनूँगा जिस दिन मेरी आँखें दोनों प्रेमियों को देख ठंडी होगी, मगर तुमको तो मेरी सूरत से नफरत है।

- तुम्हारा वीरेंद्र।’

जवाब लिख कर कुमार ने उसी जगह पर रख दिया। वे दोनों सवार दूर खड़े दिखाई दिए, कुमार देर तक खड़े राह देखते रहे मगर वे नजदीक न आए, जब कुमार कुछ दूर हट गए तब उनमें से एक ने आ कर खत का जवाब उठा लिया और देखते-देखते नजरों की ओट हो गया। कुमार भी फतहसिंह के साथ लश्कर में आए।

कुछ रात गए तेजसिंह वगैरह भी वापस आ कर कुमार के खेमे में इकट्ठे हुए। तेजसिंह ने कहा - ‘आज भी किसी का पता न लगा, हाँ कई नकाबपोश सवारों को इधर-उधर घूमते देखा। मैंने चाहा कि उनका पता लगाऊँ मगर न हो सका क्योंकि वे लोग भी चालाकी से घूमते थे, मगर कल जरूर हम उन लोगों का पता लगा लेंगे।’

कुमार ने कहा - ‘देखो तुम्हारे किए कुछ न हुआ मगर मैंने कैसी ऐयारी की कि खोई हुई चीज को ढूँढ़ निकाला, देखो यह तिलिस्मी किताब।’ यह कह कुमार ने किताब तेजसिंह के आगे रख दी।

तेजसिंह ने कहा - ‘आप जो कुछ ऐयारी करेंगे, वह तो मालूम ही है मगर यह बताइए कि किताब कैसे हाथ लगी? जो बात होती है ताज्जुब की।’

कुमार ने बिल्कुल हाल किताब पाने का कह सुनाया, तब वह खत दिखाई और जो कुछ जवाब लिखा था वह भी कहा।

ज्योतिषी जी ने कहा - ‘क्यों न हो, फिर तो बड़े घर की लड़की है, किसी तरह से कुमार को दु:ख देना पसंद न किया। सिवाय इसके खत पढ़ने से यह भी मालूम होता है कि वह कुमार के पूरे-पूरे हाल से वाकिफ है, मगर हम लोग बिल्कुल नहीं जान सकते कि वह है कौन।’

कुमार ने कहा - ‘इसकी शर्म तो तेजसिंह को होनी चाहिए कि इतने बड़े ऐयार होकर दो-चार औरतों का पता नहीं लगा सकते।’

तेजसिंह पता तो ऐसा लगाएँगे कि आप भी खुश हो जाएँगे, मगर अब किताब मिल गई है तो पहले तिलिस्म के काम से छुट्टी पा लेनी चाहिए।

कुमार – ‘तब तक क्या वे सब बैठी रहेंगी?’

तेजसिंह – ‘क्या अब आपको कुमारी चंद्रकांता की फिक्र न रही?’

कुमार – ‘क्यों नहीं, कुमारी की मुहब्बत भी मेरे नस-नस में बसी हुई है, मगर तुम भी तो इंसाफ करो कि इसकी मुहब्बत मेरे साथ कैसी सच्ची है, यहाँ तक कि मेरे ही सबब से कुमारी चंद्रकांता को मुझसे भी बढ़ कर समझ रखा है।’

तेजसिंह हम यह तो नहीं कहते कि उसकी मुहब्बत की तरफ ख्याल न करें, मगर तिलिस्म का भी तो ख्याल होना चाहिए।

कुमार – ‘तो ऐसा करो जिसमें दोनों का काम चले।’

तेजसिंह – ‘ऐसा ही होगा, दिन को तिलिस्म तोड़ने का काम करेंगे, रात को उन लोगों का पता लगाएँगे।’

आज की रात फिर उसी तरह काटी, सवेरे मामूली कामों से छुट्टी पा कर कुँवर वीरेंद्रसिंह, तेजसिंह और ज्योतिषी जी तिलिस्म में घुसे, तिलिस्मी किताब साथ थी। जैसे-जैसे उसमें लिखा हुआ था उसी तरह ये लोग तिलिस्म तोड़ने लगे।

तिलिस्मी किताब में पहले ही यह लिखा हुआ था कि तिलिस्म तोड़ने वाले को चाहिए कि जब पहर दिन बाकी रहे तिलिस्म से बाहर हो जाए और उसके बाद कोई काम लितिस्म तोड़ने का न करे।

बयान - 4

तिलिस्मी खँडहर में घुस कर पहले वे उस दालान में गए जहाँ पत्थर के चबूतरे पर पत्थर ही का आदमी सोया हुआ था। कुमार ने इसी जगह से तिलिस्म तोड़ने में हाथ लगाया।

जिस चबूतरे पर पत्थर का आदमी सोया था उसके सिरहाने की तरफ पाँच हाथ हट कर कुमार ने अपने हाथ से जमीन खोदी। गज भर खोदने के बाद एक सफेद पत्थर की चट्टान देखी जिसमें उठाने के लिए लोहे की मजबूत कड़ी लगी हुई भी दिखाई पड़ी। कड़ी में हाथ डाल के पत्थर उठा कर बाहर किया। तहखाना मालूम पड़ा, जिसमें उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी थीं।

तेजसिंह ने मशाल जला ली, उसी की रोशनी में सब कोई नीचे उतरे। खूब खुलासी कोठरी देखी, कहीं गर्द या कूड़े का नमो-निशान नहीं, बीच में संगमरमर पत्थर की खूबसूरत पुतली एक हाथ में काँटी दूसरे हाथ में हथौड़ी लिए खड़ी थी।

कुमार ने उसके हाथ से हथौड़ी-काँटी ले कर उसी के बाएँ कान में काँटी डाल हथौड़ी से ठोक दी, साथ ही उस पुतली के होंठ हिलने लगे और उसमें से बाजे की-सी आवाज आने लगी, मालूम होता था मानो वह पुतली गा रही है।

थोड़ी देर तक यही कैफियत रही, यकायक पुतली के बाएँ-दाहिने दोनों अंगो के दो टुकड़े हो गए और उसके पेट में से आठ अंगुल का छोटा-सा गुलाब का पौधा जिसमें कई फूल भी लगे हुए थे और डाल में एक ताली लटक रही थी निकला, साथ ही इसके एक छोटा-सा तांबे का पत्र भी मिला जिस पर कुछ लिखा हुआ था। कुमार ने उसे पढ़ा -

‘इस पेड़ को हमारे यहाँ के वैद्य अजायबदत ने मसाले से बनाया है। इन फूलों से बराबर गुलाब की खुशबू निकल कर दूर-दूर तक फैला करेगी। दरबार में रखने के लिए यह एक नायाब पौधा सौगात के तौर पर वैद्य जी ने तुम्हारे वास्ते रखा है।’

इसको पढ़ कर कुमार बहुत खुश हुए और ज्योतिषी जी की तरफ देख कर बोले - ‘यह बहुत अच्छी चीज मुझको मिली, देखिए इस वक्त भी इन फूलों में से कैसी अच्छी खुशबू निकल कर फैल रही है।’

तेजसिंह – ‘इसमें तो कोई शक नहीं।’

देवीसिंह – ‘एक-से-एक बढ़ कर कारीगरी दिखाई पड़ती है।’

अभी कुमार बात कर रहे थे कि कोठरी के एक तरफ का दरवाजा खुल गया। अँधेरी कोठरी में अभी तक इन लोगों ने कोई दरवाजा या उसका निशान नहीं देखा था पर इस दरवाजे के खुलने से कोठरी में बखूबी रोशनी पहुँची। मशाल बुझा दी गई और ये लोग उस दरवाजे की राह से बाहर हुए। एक छोटा-सा खूबसूरत बाग देखा। यह बाग वही था जिसमें चपला आई थी और जिसका हाल हम दूसरे भाग में लिख चुके हैं।

बमूजिब लिखे तिलिस्मी किताब के कुमार ने उस ताली में एक रस्सी बाँधी जो पुतली के पेट से निकली थी। रस्सी हाथ में थाम ताली को जमीन में घसीटते हुए कुमार बाग में घूमने लगे। हर एक रविशों और क्वारियों में घूमते हुए एक फव्वारे के पास ताली जमीन से चिपक गई। उसी जगह ये लोग भी ठहर गए। कुमार के कहे मुताबिक सभी ने उस जमीन को खोदना शुरू किया, दो-तीन हाथ खोदा था कि ज्योतिषी जी ने कहा - ‘अब पहर भर दिन बाकी रह गया, तिलिस्म से बाहर होना चाहिए।’

कुमार ने ताली उठा ली और चारों आदमी कोठरी की राह से होते हुए ऊपर चढ़ के उस दालान में पहुँचे जहाँ चबूतरे पर पत्थर का आदमी सोया था, उसके सिरहाने की तरफ जमीन खोद कर जो पत्थर की चट्टान निकली थी, उसी को उलट कर तहखाने के मुँह पर ढाँप दिया। उसके दोनों तरफ उठाने के लिए कड़ी लगी हुई थी, और उलटी तरफ एक ताला भी बना हुआ था। उसी ताली से जो पुतली के पेट से निकली थी यह ताला बंद भी कर दिया।

चारों आदमी खँडहर से निकल कुमार के खेमे में आए। थोड़ी देर आराम कर लेने के बाद तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी कुमार से कह के वनकन्या की टोह में जंगल की तरफ रवाना हुए। इस समय दिन अनुमानत, दो घंटे बाकी होगा।

ये तीनों ऐयार थोड़ी ही दूर गए होंगे कि एक नकाबपोश जाता हुआ दिखा। देवीसिंह वगैरह पेड़ों की आड़ दिए उसी के पीछे-पीछे रवाना हुए। वह सवार कुछ पश्चिम हटता हुआ सीधे चुनारगढ़ की तरफ जा रहा था। कई दफा रास्ते में रुका, पीछे फिर कर देखा और बढ़ा।

सूरज अस्त हो गया। अँधेरी रात ने अपना दखल कर लिया, घना जंगल अँधेरी रात में डरावना मालूम होने लगा। अब ये तीनों ऐयार सूखे पत्तो की आवाज पर जो टापों के पड़ने से होती थी जाने लगे। घंटे भर रात जाते-जाते उस जंगल के किनारे पहुँचे।

नकाबपोश सवार घोड़े पर से उतर पड़ा। उस जगह बहुत से घोड़े बँधे थे। वहीं पर अपना घोड़ा भी बाँध दिया, एक तरफ घास का ढेर लगा हुआ था, उसमें से घास उठा कर घोड़े के आगे रख दी और वहाँ से पैदल रवाना हुआ।

उस नकाबपोश के पीछे-पीछे चलते हुए ये तीनों ऐयार पहर रात बीते गंगा किनारे पहुँचे। दूर से जल में दो रोशनियाँ दिखाई पड़ीं, मालूम होता था जैसे दो चंद्रमा गंगाजी में उतर आए हैं। सफेद रोशनी जल पर फैल रही थी। जब पास पहुँचे देखा कि एक सजी हुई नाव पर कई खूबसूरत औरतें बैठी हैं, बीच में ऊँची गद्दी पर एक कमसिन नाजुक औरत जिसका रोआब देखने वालों पर छा रहा है बैठी है, चाँद-सा चेहरा दूर से चमक रहा है। दोनों तरफ माहताब जल रहे हैं।

नकाबपोश ने किनारे पहुँच कर जोर से सीटी बजाई, साथ ही उस नाव में से इस तरह सीटी की आवाज आई जैसे किसी ने जवाब दिया हो। उन औरतों में से जो उस नाव पर बैठी थीं दो औरतें उठ खड़ी हुईं तथा नीचे उतर एक डोंगी जो उस नाव के साथ बँधी थी, खोल कर किनारे ला नकाबपोश को उस पर चढ़ा ले गई।

अब ये तीनों ऐयार आपस में बातें करने लगे -

तेजसिंह – ‘वाह, इस नाव पर छूटते हुए दो माहताबों के बीच ये औरतें कैसी भली मालूम होती हैं।’

ज्योतिषी – ‘परियों का अखाड़ा मालूम होता है, चलो तैर कर के उनके पास चलें।’

देवीसिंह – ‘ज्योतिषी जी, कहीं ऐसा न हो कि परियाँ आपको उड़ा ले जाएँ, फिर हमारी मंडली में एक दोस्त कम हो जाएगा।’

तेजसिंह – ‘मैं जहाँ तक ख्याल करता हूँ यह उन्हीं लोगों की मंडली है जिन्हें कुमार ने देखा था।’

देवीसिंह – ‘इसमें तो कोई शक नहीं।’

ज्योतिषी – ‘तो तैर कर के चलते क्यों नहीं? तुम तो जल से ऐसा डरते हो जैसे कोई बूढ़ा आफियूनी डरता हो।’

देवीसिंह – ‘फिर तुम्हारे साथ आने से क्या फायदा हुआ? तुम्हारी तो बड़ी तारीफ सुनते थे कि ज्योतिषी जी ऐसे हैं, वैसे हैं, पहिया हैं, चर्खे हैं, मगर कुछ नहीं, एक अदनी-सी मंडली का पता नहीं लगा सकते।’

ज्योतिषी – ‘मैं क्या खाक बताऊँ? वे लोग तो मुझसे भी ज्यादा उस्ताद मालूम होती हैं। सभी ने अपने-अपने नाम ही बदल दिए हैं, असल नाम का पता लगाना चाहते हैं तो अजीबो-गरीब नामों का पता लगता है। किसी का नाम वियोगिनी, किसी का नाम योगिनी, किसी का भूतनी, किसी का डाकिनी, भला बताइए क्या मैं मान लूँ कि इन लोगों के यही नाम हैं?

तेजसिंह - ‘तो इन लोगों ने अपना नाम क्यों बदल लिया?’

ज्योतिषी – ‘हम लोगों को उल्लू बनाने के लिए।’

देवीसिंह – ‘अच्छा नाम जाने दीजिए, इनके मकाम का पता लगाइए।’

ज्योतिषी – ‘मकाम के बारे में जब रमल से दरियाफ्त करते हैं तो मालूम होता है कि इन लोगों का मकाम जल में है, तो क्या हम समझ लें कि ये लोग जलवासी अर्थात मछली हैं।’

तेजसिंह – ‘यह तो ठीक ही है, देखिए जलवासी हैं कि नहीं?’

ज्योतिषी – ‘भाई सुनो, रमल के काम में ये चारों पदार्थ - हवा, पानी, मिट्टी और आग हमेशा विघ्न डालते हैं। अगर कोई आदमी ज्योतिषी या रम्माल को छकाना चाहे तो इन चारों के हेर-फेर से खूब छकाया जा सकता है। ज्योतिषी बेचारा खाक न कर सके, पोथी-पत्र बेकार का बोझ हो जाए।

तेजसिंह – ‘यह कैसे? खुलासा बताओ तो कुछ हम लोग भी समझें, वक्त पर काम ही आएगा।’

ज्योतिषी – ‘बता देंगे, इस वक्त जिस काम को आए हो वह करो। चलो तैर कर चलें।’

तेजसिंह – ‘चलो।’

ये तीनों ऐयार तैर कर कर नाव के पास गए। बटुआ ऐयारी का कमर में बाँधा कपड़ा-लत्ता किनारे रख कर जल में उतर गए। मगर दो-चार हाथ गए होंगे कि पीछे से सीटी की आवाज आई, साथ ही नाव पर जो माहताब जल रहे थे बुझ गए, जैसे किसी ने उन्हें जल्दी से जल में फेंक दिया हो। अब बिल्कुल अँधेरा हो गया, नाव नजरों से छिप गई।

देवीसिंह ने कहा - ‘लीजिए, चलिए तैर कर के।’

तेजसिंह – ‘ये सब बड़ी शैतान मालूम होती हैं?’

ज्योतिषी – ‘मैंने तो पहले ही कहा कि ये सब-की-सब आफत हैं, अब आपको मालूम हुआ न कि मैं सच कहता था, इन लोगों ने हमारे नजूम को मिट्टी कर दिया है।’

देवीसिंह – ‘चलिए किनारे, इन्होंने तो बेढब छकाया, मालूम होता है कि किनारे पर कोई पहरे वाला खड़ा देखता था। जब हम लोग तैर कर के जाने लगे उसने सीटी बजाई, बस अँधेरा हो गया, पहले ही से इशारा बँधा हुआ था।’

ज्योतिषी – ‘इस नालायक को यह क्या सूझी कि जब हम लोग पानी में उतर चुके, तब सीटी बजाई, पहले ही बजाता तो हम लोग क्यों भीगते?’

ये तीनो ऐयार लौट कर किनारे आए, पहनने के वास्ते अपना कपड़ा खोजते हैं तो मिलते ही नहीं।

देवीसिंह – ‘ज्योतिषी जी पांलागी, लीजिए कपड़े भी गायब हो गए। हाय इस वक्त अगर इन लोगों में से किसी को पाऊँ तो कच्चा ही चबा जाऊँ!’

तेजसिंह – ‘हम तो उन लोगों की तारीफ करेंगे, खूब ऐयारी की।’

देवीसिंह – ‘हाँ-हाँ खूब तारीफ कीजिए जिससे उन लोगों में से अगर कोई सुनता हो तो अब भी आप पर रहम करे और आगे न सतावे।’

ज्योतिषी – ‘अब क्या सताना बाकी रह गया। कपड़े तक तो उतरवा लिए।’

तेजसिंह – ‘चलिए अब लश्कर में चलें, इस वक्त और कुछ करते बन न पड़ेगा।’

आधी रात जा चुकी होगी, जब ये लोग ऐयारी के सताए बदन से नंग-धड़ंग काँपते-कलपते लश्कर की तरफ रवाना हुए।

बयान - 5

तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी के जाने के बाद कुँवर वीरेंद्रसिंह इन लोगों के वापस आने के इंतजार में रात-भर जागते रह गए। ज्यों-ज्यों रात गुजरती थी कुमार की तबीयत घबराती थी। सवेरा होने ही वाला था जब ये तीनों ऐयार लश्कर में पहुँचे। तेजसिंह की राय हुई कि इसी तरह नंग-धड़ंग कुमार के पास चलना चाहिए, आखिर तीनों उसी तरह उनके खेमे में गए।

कुँवर वीरेंद्रसिंह जाग रहे थे, शमादान जल रहा था, इन तीनों ऐयारों की विचित्र सूरत देख हैरान हो गए। पूछा - ‘यह क्या हाल है?’ तेजसिंह ने कहा - ‘बस अभी तो सूरत देख लीजिए बाकी हाल जरा दम ले के कहेंगे।’

तीनों ऐयारों ने अपने-अपने कपड़े मँगवा कर पहरे, इतने में साफ सवेरा हो गया। कुमार ने तेजसिंह से पूछा - ‘अब बताओ तुम लोग किस बला में फँस गए?’

तेजसिंह – ‘ऐसा धोखा खाया कि जन्म भर याद करेंगे।’

कुमार – ‘वह क्या?’

तेजसिंह – ‘जिनके ऊपर आप जान दिए बैठे हैं, जिनकी खोज में हम लोग मारे-मारे फिरते हैं, इसमें तो कोई शक नहीं कि उनका भी प्रेम आपके ऊपर बहुत है, मगर न मालूम इतनी छिपी क्यों फिरती हैं और इसमें उन्होंने क्या फायदा सोचा है?’

कुमार – ‘क्या कुछ पता लगा?’

तेजसिंह – ‘पता क्या, आँख से देख आए हैं तभी तो इतनी सजा मिली। उनके साथ भी एक-से-एक बढ़ कर ऐयार हैं, अगर ऐसा जानते तो होशियारी से जाते।’

कुमार – ‘भला खुलासा कहो तो कुछ मालूम भी हो।’

तेजसिंह ने सब हाल कहा, कुमार सुन कर हँसने लगे और ज्योतिषी जी से बोले - ‘आपके रमल को भी उन लोगों ने धोखा दिया।’

ज्योतिषी – ‘कुछ न पूछिए, सब आफत हैं।’

कुमार – ‘उन लोगों का खुलासा हाल नहीं मालूम हुआ तो भला इतना ही विचार लेते कि शिवदत्त के ऐयारों की कुछ ऐयारी तो नहीं है?’

ज्योतिषी – ‘नहीं, शिवदत्त के ऐयारों से और उन लोगों से कोई वास्ता नहीं, बल्कि उन लोगों को इनकी खबर भी न होगी, इस बात को मैं खूब विचार चुका हूँ।

तेजसिंह – ‘इतनी ही खैरियत है।’

देवीसिंह – ‘आज दिन ही को चल कर पता लगाएँगे।’

तेजसिंह – ‘तिलिस्म तोड़ने का काम कैसे चलेगा?’

कुमार – ‘एक रोज काम बंद रहेगा तो क्या होगा?’

तेजसिंह – ‘इसी से तो मैं कहता हूँ कि चंद्रकांता की मुहब्बत आपके दिल से कम हो गई है।’

कुमार – ‘कभी नहीं, चंद्रकांता से बढ़ कर मैं दुनिया में किसी को नहीं चाहता मगर न मालूम क्या सबब है कि वनकन्या का हाल मालूम करने के लिए भी जी बेचैन रहता है।

तेजसिंह - (हँस कर) ‘खैर, पहले तो पंडित बद्रीनाथ ऐयार को ले जा कर उस खोह में कैद करना है फिर दूसरा काम देखेंगे, कहीं ऐसा न हो कि वे छूट के चल दें।’

कुमार – ‘आज ही ले जा कर छोड़ आओ।’

तेजसिंह – ‘हाँ, अभी उनको ले जाता हूँ, वहाँ रख कर रातों-रात लौट आऊँगा, पंद्रह कोस का मामला ही क्या है, तब तक देवीसिंह और ज्योतिषी जी वनकन्या की खोज में जाए।

तेजसिंह की राय पक्की ठहरी, वे स्नान-पूजा से छुट्टी पा कर तैयार हुए, खाने की चीजों में बेहोशी की दवा मिला कर बद्रीनाथ को खिलाई गईं और जब वे बेहोश हो गए तब तेजसिंह गट्ठर बाँध कर पीठ पर लाद खोह की तरफ रवाना हुए। कुमार ने देवीसिंह और ज्योतिषी जी को वनकन्या की टोह में भेजा।

तेजसिंह पंडित बद्रीनाथ की गठरी लिए शाम होते-होते तहखाने में पहुँचे। शेर के मुँह में हाथ डाल जुबान खींची और तब दूसरा ताला खोला, मगर दरवाजा न खुला। अब तो तेजसिंह के होश उड़ गए, फिर कोशिश की, लेकिन किवाड़ न खुला। बैठ के सोचने लगे, मगर कुछ समझ में न आया। आखिर लाचार हो बद्रीनाथ की गठरी लादे वापस हुए।

बयान - 6

देवीसिंह और ज्योतिषी जी वनकन्या की टोह में निकल कर थोड़ी ही दूर गए होंगे कि एक नकाबपोश सवार मिला। जिसने पुकार कर कहा - ‘देवीसिंह कहाँ जाते हो? तुम्हारी चालाकी हम लोगों से न चलेगी, अभी कल आप लोगों की खातिर की गई है और जल में गोते दे कर कपड़े सब छीन लिए गए, अब क्या गिरफ्तार ही होना चाहते हो? थोड़े दिन सब्र करो, हम लोग तुम लोगों को ऐयारी सिखला कर पक्का करेंगे तब काम चलेगा।’

नकाबपोश सवार की बातें सुन देवीसिंह मन में हैरान हो गए पर ज्योतिषी जी की तरफ देख कर बोले - ‘सुन लीजिए। यह सवार साहब हम लोगों को ऐयारी सिखानेवाला है’ नकाबपोश – ‘ज्योतिषी जी क्या सुनेंगे, यह भी तो शर्माते होंगे क्योंकि इनके रमल को हम लोगों ने बेकार कर दिया, हजार दफा फेंकें मगर पता खाक न लगेगा।’

देवीसिंह – ‘अगर इस इलाके में रहोगे तो बिना पता लगाए न छोड़ेंगे।’

नकाबपोश – ‘रहेंगे नहीं तो जाएँगे कहाँ? रोज मिलेंगे मगर पता न लगने देंगे।’

बात करते-करते देवीसिंह ने चालाकी से कूद कर सवार के मुँह पर से नकाब खींच ली। देखा कि तमाम चेहरे पर रोली मली हुई है, कुछ पहचान न सके।

सवार ने फुर्ती के साथ देवीसिंह की पगड़ी उतार ली और एक खत उनके सामने फेंक घोड़ा दौड़ा कर निकल गया। देवीसिंह ने शर्मिंदगी के साथ खत उठा कर देखा, लिफाफे पर लिखा हुआ था - ‘कुँवर वीरेंद्रसिंह’

ज्योतिषी जी ने देवीसिंह से कहा - ‘न मालूम ये लोग कहाँ के रहने वाले हैं। मुझे तो मालूम होता है कि इस मंडली में जितने हैं, सब ऐयार ही हैं।’

देवीसिंह - (खत जेब में रख कर) ‘इसमें तो शक नहीं, देखिए हर दफा हम ही लोग नीचा देखते हैं, समझा था कि नकाब उतार लेने से सूरत मालूम होगी, मगर उसकी चालाकी तो देखिए चेहरा रंग कर तब नकाब डाले हुए था।’

ज्योतिषी – ‘खैर, देखा जाएगा, इस वक्त तो फिर से लश्कर में चलना पड़ा क्योंकि खत कुमार को देना चाहिए, देखें इससे क्या हाल मालूम होता है? अगर इस पर कुमार का नाम न लिखा होता तो पढ़ लेते।’

देवीसिंह – ‘हाँ चलो, पहले खत का हाल सुन लें तब कोई कार्रवाई सोचें।’

दोनों आदमी लौट कर लश्कर में आए और कुँवर वीरेंद्रसिंह के डेरे में पहुँच कर सब हाल कह खत हाथ में दे दिया। कुमार ने पढ़ा, यह लिखा हुआ था -

‘चाहे जो हो, पर मैं आपके सामने तब तक नहीं आ सकती जब तक आप नीचे लिखी बातों का लिख कर इकरार न कर लें –

1. चंद्रकांता से और मुझसे एक ही दिन एक ही सायत में शादी हो।

2. चंद्रकांता से रुतबे में मैं किसी तरह कम न समझी जाऊँ क्योंकि मैं हर तरह हर दर्जे में उसके बराबर हूँ।

अगर इन दोनों बातों का इकरार आप न करेंगे तो कल ही मैं अपने घर का रास्ता लूँगी। सिवाय इसके यह भी कहे देती हूँ कि बिना मेरी मदद के चाहे आप हजार बरस भी कोशिश करें मगर चंद्रकांता को नहीं पा सकते।’

कुमार का इश्क वनकन्या पर पूरे दर्जे का था। चंद्रकांता से किसी तरह वनकन्या की चाह कम न थी, मगर इस खत को पढ़ने से उनको कई तरह की फिक्रों ने आ घेरा। सोचने लगे कि यह कैसे हो सकता है कि कुमारी से और इससे एक ही सायत में शादी हो, वह कब मंजूर करेगी और महाराज जयसिंह ही कब इस बात को मानेंगे। सिवाय इसके यहाँ यह भी लिखा है कि बिना मेरी मदद के आप चंद्रकांता से नहीं मिल सकते, यह क्या बात है? खैर, सो सब जो भी हो वनकन्या के बिना मेरी जिंदगी मुश्किल है, मैं जरूर उसके लिखे मुताबिक इकरारनामा लिख दूँगा, पीछे समझा जाएगा। कुमारी चंद्रकांता मेरी बात जरूर मान लेगी।

देवीसिंह और ज्योतिषी जी को भी कुमार ने वह खत दिखाया। वे लोग भी हैरान थे कि वनकन्या ने यह क्या लिखा और इसका जवाब क्या देना चाहिए।

दिन और रात-भर कुमार इसी सोच में रहे कि इस खत का क्या जवाब दिया जाए। दूसरे दिन सुबह होते-होते तेजसिंह भी पंडित बद्रीनाथ ऐयार की गठरी पीठ पर लादे हुए आ पहुँचे।

कुमार ने पूछा - ‘वापस क्यों आ गए?’

तेजसिंह – ‘क्या बताएँ मामला ही बिगड़ गया।’

कुमार – ‘सो क्या?’

तेजसिंह – ‘तहखाने का दरवाजा नहीं खुलता।’

कुमार – ‘किसी ने भीतर से तो बंद नहीं कर लिया।’

तेजसिंह – ‘नहीं भीतर तो कोई ताला ही नहीं है।’

ज्योतिषी – ‘दो बातों में से एक बात जरूर है, या तो कोई नया आदमी पहुँचा जिसने दरवाजा खोलने की कोशिश में बिगाड़ दिया, या फिर महाराज शिवदत्त ने भीतर से कोई चालाकी की।’

तेजसिंह – ‘भला शिवदत्त अंदर से बंद करके अपने को और बला में क्यों फँसाएँगे? इसमें तो उनका हर्ज ही है कुछ फायदा नहीं।’

कुमार – ‘कहीं वनकन्या ने तो कोई तरकीब नहीं की।’

तेजसिंह – ‘आप भी गजब करते हैं, कहाँ बेचारी वनकन्या कहाँ वह तिलिस्मी तहखाना।’

कुमार – ‘तुमको मालूम ही नहीं। उसने मुझे खत लिखा है कि - बिना मेरी मदद के तुम चंद्रकांता से नहीं मिल सकते। और भी दो बातें लिखी हैं। मैं इसी सोच में था कि क्या जवाब दूँ और वह कौन-सी बात है जिसमें मुझको वनकन्या की मदद की जरूरत पड़ेगी, मगर अब तुम्हारे लौट आने से शक पैदा होता है।’

देवीसिंह – ‘मुझे भी कुछ उन्हीं का बखेड़ा मालूम होता है।’

तेजसिंह – ‘अगर वनकन्या को हमारे साथ कुछ फसाद करना होता तो तिलिस्मी किताब क्यों वापस देती? देखिए उस खत में क्या लिखा है जो किताब के साथ आया था।’

ज्योतिषी – ‘यह भी तुम्हारा कहना ठीक है।’

तेजसिंह - (कुमार से) ‘भला वह खत तो दीजिए जिसमें वनकन्या ने यह लिखा है कि बिना हमारी मदद के चंद्रकांता से मुलाकात नहीं हो सकती।’

कुमार ने वह खत तेजसिंह के हाथ में दे दी, पढ़ कर तेजसिंह बड़े सोच में पड़ गए कि यह क्या बात है, कुछ अक्ल काम नहीं करती।

कुमार ने कहा - ‘तुम लोग यह जानते ही हो कि वनकन्या की मुहब्बत मेरे दिल में कैसा असर कर गई है, बिना देखे एक घड़ी चैन नहीं पड़ता, तो फिर उसके लिखे बमूजिब इकरारनामा लिख देने में क्या हर्ज है, जब वह खुश होगी तो उससे जरूर ही कुछ न कुछ भेद मिलेगा।’

तेजसिंह – ‘जो मुनासिब समझो कीजिए, चंद्रकांता बेचारी तो कुछ न बोलेगी मगर महाराज जयसिंह यह कब मंजूर करेंगे कि एक ही मड़वे में दोनों के साथ शादी हो। क्या जाने वह कौन, कहाँ की रहने वाली और किसकी लड़की है?’

कुमार – ‘उसकी खत में तो यह भी लिखा है कि मैं किसी तरह रुतबे में कुमारी से कम नहीं हूँ।’

ये बातें हो ही रही थीं कि चोबदार ने आ कर अर्ज किया - ‘एक सिपाही बाहर आया है और जो हाजिर होकर कुछ कहना चाहता है।’

कुमार ने कहा - ‘उसे ले आओ।’ चोबदार उस सिपाही को अंदर ले आया, सभी ने देखा कि अजीब रंग-ढंग का आदमी है। नाटा-सा कद, काला रंग, टाट का चपकन पायजामा जिसके ऊपर से लैस टंकी हुई, सिर पर दौरी की तरह बाँस की टोपी, ढाल-तलवार लगाए था। उसने झुक कर कुमार को सलाम किया।

सभी को उसकी सूरत देख कर हँसी आई मगर हँसी को रोका। तेजसिंह ने पूछा - ‘तुम कौन हो और कहाँ से आए हो?’ उस बाँके जवान ने कहा - ‘मैं देवता हूँ, दैत्यों की मंडली से आ रहा हूँ, कुमार से उस खत का जवाब चाहता हूँ जो कल एक सवार ने देवीसिंह और जगन्नाथ ज्योतिषी को दी थी।’

तेजसिंह – ‘भला तुमने ज्योतिषी जी और देवीसिंह का नाम कैसे जाना?’

बाँका – ‘ज्योतिषी जी को तो मैं तब से जानता हूँ जब से वे इस दुनिया में नहीं आए थे, और देवीसिंह तो हमारे चेले ही हैं।’

देवीसिंह – ‘क्यों बे शैतान, हम कब से तेरे चेले हुए? बेअदबी करता है?’

बाँका – ‘बेअदबी तो आप करते हैं कि उस्ताद को बे-बे करके बुलाते हैं, कुछ इज्जत नहीं करते।’

देवीसिंह – ‘मालूम होता है तेरी मौत तुझको यहाँ ले आई है।’

बाँका – ‘मैं तो स्वयं मौत हूँ।’

देवीसिंह – ‘इस बेअदबी का मजा चखाऊँ तुझको?’

बाँका – ‘मैं कुछ ऐसे-वैसे का भेजा नहीं आया हूँ, मुझको उसने भेजा है जिसको तुम दिन में साढ़े सत्रह दफा झुक कर सलाम करोगे।’

देवीसिंह और कुछ कहा ही चाहते थे कि तेजसिंह ने रोक दिया और कहा - ‘चुप रहो, मालूम होता है यह कोई ऐयार या मसखरा है, तुम खुद ऐयार होकर जरा दिल्लगी में रंज हो जाते हो।’

बाँका – ‘अगर अब भी न समझोगे तो समझाने के लिए मैं चंपा को बुला लाऊँगा।’

उस बाँके-टेढ़े जवान की बात पर सब लोग एकदम हँस पड़े, मगर हैरान थे कि वह कौन है? अजब तमाशा तो यह कि वनकन्या के कुल आदमी हम लोगों का रत्ती-रत्ती हाल जानते हैं और हम लोग कुछ नहीं समझ सकते कि वे कौन हैं।

तेजसिंह उस शैतान की सूरत को गौर से देखने लगे।

वह बोला - ‘आप मेरी सूरत क्या देखते हैं। मैं ऐयार नहीं हूँ, अपनी सूरत मैंने रंगी नहीं है, पानी मंगाइए धो कर दिखा दूँ, मैं आज से काला नहीं हूँ, लगभग चार सौ वर्षों से मेरा यही रंग रहा है।’

तेजसिंह हँस पड़े और बोले - ‘जो हो अच्छे हो, मुझे और जाँचने की कोई जरूरत नहीं, अगर दुश्मन का आदमी होता तो ऐसा करते भी मगर तुमसे क्या? ऐयार हो तो, मसखरे हो तो, इसमें कोई शक नहीं कि दोस्त के आदमी हो।’

यह सुन उसने झुक कर सलाम किया और कुमार की तरफ देख कर कहा - ‘मुझको जवाब मिल जाए क्योंकि बड़ी दूर जाना है।’

कुमार ने उसी खत की पीठ पर यह लिख दिया - ‘मुझको सब-कुछ दिलोजान से मंजूर है।’ बाद इसके अपनी अँगूठी से मोहर कर उस बाँके जवान के हवाले किया, वह खत ले कर खेमे के बाहर हो गया।

बयान - 7

आज तेजसिंह के वापस आने और बाँके-तिरछे जवान के पहुँच कर बातचीत करने और खत लिखने में देर हो गई, दो पहर दिन चढ़ आया। तेजसिंह ने बद्रीनाथ को होश में ला कर पहरे में किया और कुमार से कहा - ‘अब स्नान-पूजा करें फिर जो कुछ होगा सोचा जाएगा, दो रोज से तिलिस्म का भी कोई काम नहीं होता।’

कुमार ने दरबार बर्खास्त किया, स्नान-पूजा से छुट्टी पा कर खेमे में बैठे, ऐयार लोग और फतहसिंह भी हाजिर हुए। अभी किसी किस्म की बातचीत नहीं हुई थी कि चोबदार ने आ कर अर्ज किया - ‘एक बूढ़ी औरत बाहर हाजिर हुई है, कुछ कहना चाहती है, हम लोग पूछते हैं तो कुछ नहीं बताती, कहती है जो कुछ है कुमार से कहूँगी क्योंकि उन्हीं के मतलब की बात है।’

कुमार ने कहा - ‘उसे जल्दी अंदर लाओ।’ चोबदार ने उस बुढ़िया को हाजिर किया, देखते ही तेजसिंह के मुँह से निकला - ‘क्या पिशाचों और डाकिनियों का दरबा खुल पड़ा है?’

उस बुढ़िया ने भी यह बात सुन ली, लाल-लाल आँखें कर तेजसिंह की तरफ देखने लगी और बोली - ‘बस कुछ न कहूँगी जाती हूँ, मेरा क्या बिगड़ेगा, जो कुछ नुकसान होगा कुमार का होगा।’

यह कह कर खेमे के बाहर चली गई। कुमार का इशारा पा चोबदार समझा-बुझा कर उसे पुनः ले आया।

यह औरत भी अजीब सूरत की थी। उम्र लगभग सत्तर वर्ष के होगी, बाल कुछ-कुछ सफेद, आधे से ज्यादा दाँत गायब, लेकिन दो बड़े-बड़े और टेढ़े आगे वाले दाँत दो-दो अंगुल बाहर निकले हुए थे जिनमें जर्दी और कीट जमी हुई थी। मोटे कपड़े की साड़ी बदन पर थी जो बहुत ही मैली और सिर की तरफ से चिक्कट हो रही थी। बड़ी-सी पीतल की नथ नाक में और पीतल ही के घूँघरू पैर में पहने हुए थे।

तेजसिंह ने कहा - ‘क्यों क्या चाहती हो?’

बुढ़िया – ‘जरा दम ले लूँ तो कहूँ, फिर तुमसे क्यों कहने लगी जो कुछ है खास कुमार ही से कहूँगी।’

कुमार – ‘अच्छा मुझ ही से कह, क्या कहती है?’

बुढ़िया – ‘तुमसे तो कहूँगी ही, तुम्हारे बड़े मतलब की बात है।’ (खाँसने लगती है)

देवीसिंह – ‘अब डेढ़ घंटे तक खाँसेगी तब कहेगी?’

बुढ़िया – ‘फिर दूसरे ने दखल दिया।’

कुमार – ‘नहीं-नहीं, कोई न बोलेगा।’

बुढ़िया – ‘एक बात है, मैं जो कुछ कहूँगी तुम्हारे मतलब की कहूँगी, जिसको सुनते ही खुश हो जाओगे, मगर उसके बदले में मैं भी कुछ चाहती हूँ।’

कुमार – ‘हाँ-हाँ तुझे भी खुश कर देंगे।’

बुढ़िया – ‘पहले तुम इस बात की कसम खाओ कि तुम या तुम्हारा कोई आदमी मुझको कुछ न कहेगा, और मारने-पीटने या कैद करने का तो नाम भी न लेगा।’

कुमार – ‘जब हमारे भले की बात है तो कोई तुमको क्यों मारने या कैद करने लगा।’

बुढ़िया – ‘हाँ यह तो ठीक है, मगर मुझे डर मालूम होता है क्योंकि मैंने आपके लिए वह काम किया है कि अगर हजार बरस भी आपके ऐयार लोग कोशिश करते तो वह न होता, इस सबब से मुझे डर मालूम होता है कि कहीं आपके ऐयार लोग खार-खा कर मुझे तंग न करें।’

उस बूढ़ी की बात सुन कर सब दंग हो गए और सोचने लगे कि यह कौन-सा ऐसा काम कर आई है कि आसमान पर चढ़ी जाती है। आखिर कुमार ने कसम खाई कि चाहे तू कुछ कहे मगर हम या हमारा कोई आदमी तुझे कुछ न कहेगा।

तब वह फिर बोली - ‘मैं उस वनकन्या का पूरा पता आपको दे सकती हूँ और एक तरकीब ऐसी बता सकती हूँ कि आप घड़ी भर में बिल्कुल तिलिस्म तोड़ कर कुमारी चंद्रकांता से जा मिलें।’

बुढ़िया की बात सुन कर सब खुश हो गए। कुमार ने कहा - ‘अगर ऐसा ही है तो जल्द बता कि वह वनकन्या कौन है और घड़ी भर में तिलिस्म कैसे टूटेगा?’

बुढ़िया – ‘पहले मेरे इनाम की बात तो कर लीजिए।’

कुमार – ‘अगर तेरी बात सच हुई तो जो कहेगी वही इनाम मिलेगा।’

बुढ़िया – ‘तो इसके लिए कसम खाइए।’

कुमार – ‘अच्छा क्या इनाम लेगी, पहले यह तो सुन लूँ।’

बुढ़िया – ‘बस और कुछ नहीं केवल इतना ही कि आप मुझसे शादी कर लें, वनकन्या और चंद्रकांता से तो चाहे जब शादी हो मगर मुझसे आज ही हो जाए क्योंकि मैं बहुत दिनों से तुम्हारे इश्क में फँसी हुई हूँ, बल्कि तुम्हारे मिलने की तरकीब सोचते-सोचते बूढ़ी हो चली। आज मौका मिला कि तुम मेरे हाथ फँस गए, बस अब देर मत करो नहीं तो मेरी जवानी निकल जाएगी, फिर पछताओगे।’

बुढ़िया की बातें सुन मारे गुस्से के कुमार का चेहरा लाल हो गया और उनके ऐयार लोग भी दाँत पीसने लगे मगर क्या करें लाचार थे, अगर कुमार कसम न खा चुके होते तो ये लोग उस बूढ़ी की पूरी दुर्गति कर देते।

तेजसिंह ने ज्योतिषी जी से पूछा - ‘आप बताइए यह कोई ऐयार है या सचमुच जैसी दिखाई देती है वैसी ही है? अगर कुमार कसम न खाए होते तो हम लोग किसी तरकीब से मालूम कर ही लेते।’

ज्योतिषी जी ने अपनी नाक पर हाथ रख कर श्वांस का विचार करके कहा - ‘यह ऐयार नहीं है, जो देखते हो वही है।’ अब तो तेजसिंह और भी बिगड़े, बूढ़ी से कहा - ‘बस तू यहाँ से चली जा, हम लोग कुमार के कसम खाने को पूरा कर चुके कि तुझे कुछ न कहा, अगर अब जाने में देर करेगी तो कुतों से नुचवा डालूँगा। क्या तमाशा है। ऐसी-ऐसी चुड़ैलें भी कुमार पर आशिक होने लगीं।’

बुढ़िया ने कहा - ‘अगर मेरी बात न मानोगे तो पछताओगे, तुम्हारा सब काम बिगाड़ दूँगी, देखो उस तहखाने में मैंने कैसा ताला लगा दिया कि तुमसे खुल न सका, आखिर बद्रीनाथ की गठरी ले कर वापस आए, अब जा कर महाराज शिवदत्त को छुड़ा देती हूँ, फिर और फसाद करूँगी।’ यह कहती हुई गुस्से के मारे लाल-लाल आँखें किए खेमे के बाहर निकल गई, तेजसिंह के इशारे से देवीसिंह भी उसके पीछे चले गए।

कुमार – ‘क्यों तेजसिंह, यह चुड़ैल तो अजब आफत मालूम पड़ती है, कहती है कि तहखाने में मैंने ही ताला लगा दिया था।’

तेजसिंह – ‘क्या मामला है कुछ समझ में नहीं आता।’

ज्योतिषी – ‘अगर इसका कहना सच है तो हम लोगों के लिए यह एक बड़ी भारी बला पैदा हुई।’

तेजसिंह – ‘इसकी सच्चाई-झुठाई तो शिवदत्त के छूटने ही से मालूम हो जाएगी, अगर सच्ची निकली तो बिना जान से मारे न छोडूँगा।’

ज्योतिषी – ‘ऐसी को मारना ही जरूरी है।’

तेजसिंह – ‘कुमार ने कुछ यह कसम तो खाई नहीं है कि जन्म भर कोई उसको कुछ न कहेगा।’

कुमार - (लंबी साँस ले कर) ‘हाय, आज मुझको यह दिन भी देखना पड़ा।’

तेजसिंह – ‘आप चिंता न कीजिए, देखिए तो हम लोग क्या करते हैं, देवीसिंह उसके पीछे गए ही हैं कुछ पता लिए बिना नहीं आते।’

कुमार – ‘आजकल तुम लोगों की ऐयारी में उल्ली लग गई है। कुछ वनकन्या का पता लगाया, कुछ अब डाकिनी की खबर लगाओगे।’

कुमार की यह बात तेजसिंह और ज्योतिषी जी को तीर के समान लगी मगर कुछ बोले नहीं, सिर्फ उठ के खेमे के बाहर चले गए।

इन लोगों के चले जाने के बाद कुमार खेमे में अकेले रह गए, तरह-तरह की बातें सोचने लगे, कभी चंद्रकांता की बेबसी और तिलिस्म में फँस जाने पर, कभी तिलिस्म टूटने में देर और वनकन्या की खबर या ठीक-ठीक हाल न पाने पर, कभी इस बूढ़ी चुड़ैल की बातों पर जो अभी शादी करने आई थी अफसोस और गम करते रहे। तबीयत बिल्कुल उदास थी। आखिर दिन बीत गया और शाम हुई।

कुमार ने फतहसिंह को बुलाया, जब वे आए तो पूछा - ‘तेजसिंह कहाँ हैं?’

उन्होंने जवाब दिया - ‘कुछ मालूम नहीं, ज्योतिषी जी को साथ ले कर कहीं गए हैं?’

बयान - 8

देवीसिंह उस बुढ़िया के पीछे रवाना हुए। जब तक दिन बाकी रहा बुढ़िया चलती गई। उन्होंने भी पीछा न छोड़ा। कुछ रात गए तक वह चुड़ैल एक छोटे से पहाड़ के दर्रे में पहुँची जिसके दोनों तरफ ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ थीं। थोड़ी दूर इस दर्रे के अंदर जा वह एक खोह में घुस गई, जिसका मुँह बहुत छोटा, सिर्फ एक आदमी के जाने लायक था।

देवीसिंह ने समझा शायद यही इसका घर होगा, यह सोच पेड़ के नीचे बैठ गए। रात-भर उसी तरह बैठे रह गए मगर फिर वह बुढ़िया उस खोह में से बाहर न निकली। सवेरा होते ही देवीसिंह भी उसी खोह में घुसे।

उस खोह के अंदर बिल्कुल अंधकार था, देवीसिंह टटोलते हुए चले जा रहे थे। अगल-बगल जब हाथ फैलाते तो दीवार मालूम पड़ती जिससे जाना जाता कि यह खोह एक सुरंग के तौर पर है, इसमें कोई कोठरी या रहने की जगह नहीं है, लगभग दो मील गए होंगे कि सामने की तरफ चमकती हुई रोशनी नजर आई। जैसे-जैसे आगे जाते थे रोशनी बढ़ी मालूम होती थी, जब पास पहुँचे तो सुरंग के बाहर निकलने का दरवाजा देखा।

देवीसिंह बाहर हुए, अपने को एक छोटी-सी पहाड़ी नदी के किनारे पाया, इधर-उधर निगाह दौड़ा कर देखा तो चारों तरफ घना जंगल। कुछ मालूम न पड़ा कि कहाँ चले आए और लश्कर में जाने की कौन-सी राह है। दिन भी पहर-भर से ज्यादा जा चुका था। सोचने लगे कि उस बुढ़िया ने खूब छकाया, न मालूम वह किस राह से निकल कर कहाँ चली गई, अब उसका पता लगाना मुश्किल है। फिर इसी सुरंग की राह से फिरना पड़ा क्योंकि ऊपर से जंगल-जंगल लश्कर में जाने की राह मालूम नहीं, कहीं ऐसा न हो कि भूल जाएँ तो और भी खराबी हो, बड़ी भूल हुई कि रात को बूढ़ी के पीछे-पीछे हम भी इस सुरंग में न घुसे, मगर यह क्या मालूम था कि इस सुरंग में दूसरी तरफ निकल जाने के लिए रास्ता है।

देवीसिंह मारे गुस्से के दाँत पीसने लगे मगर कर ही क्या सकते थे? बुढ़िया तो मिली नहीं कि कसर निकालते, आखिर लाचार हो उसी सुरंग की राह से वापस हुए और शाम होते-होते लश्कर में पहुँचे।

कुमार के खेमे में गए, देखा कि कई आदमी बैठे हैं और वीरेंद्रसिंह फतहसिंह से बातें कर रहे हैं। देवीसिंह को देख सब कोई खेमे के बाहर चले गए सिर्फ फतहसिंह रह गए। कुमार ने पूछा - ‘क्यो उस बुढ़िया की क्या खबर लाए?’

देवीसिंह – ‘बूढ़ी ने तो बेहिसाब धोखा दिया।’

कुमार - ‘(हँस कर) ‘क्या धोखा दिया?’

देवीसिंह ने बुढ़िया के पीछे जा कर परेशान होने का सब हाल कहा जिसे सुन कर कुमार और भी उदास हुए।

देवीसिंह ने फतहसिंह से पूछा - ‘हमारे उस्ताद और ज्योतिषी जी कहाँ हैं?’

उन्होंने जवाब दिया – ‘बूढ़ी चुड़ैल के आने से कुमार बहुत रंज में थे, उसी हालत में तेजसिंह से कह बैठे कि तुम लोगों की ऐयारी में इन दिनों उल्ली लग गई। इतना सुन गुस्से में आ कर ज्योतिषी जी को साथ ले कहीं चले गए, अभी तक नहीं आए।’

देवीसिंह – ‘कब गए?’

फतहसिंह - ‘तुम्हारे जाने के थोड़ी देर बाद।’

देवीसिंह – ‘इतने गुस्से में उस्ताद का जाना खाली न होगा, जरूर कोई अच्छा काम करके आएँगे।’

कुमार – ‘देखना चाहिए।’

इतने में तेजसिंह और ज्योतिषी जी वहाँ आ पहुँचे। इस वक्त उनके चेहरे पर खुशी और मुस्कराहट झलक रही थी, जिससे सब समझे कि जरूर कोई काम कर आए हैं। कुमार ने पूछा - ‘क्यों क्या खबर है?’

तेजसिंह – ‘अच्छी खबर है।’

कुमार – ‘कुछ कहोगे भी कि इसी तरह?’

तेजसिंह – ‘आप सुन के क्या कीजिएगा?’

कुमार – ‘क्या मेरे सुनने लायक नहीं है?’

तेजसिंह – ‘आपके सुनने लायक क्यों नहीं है मगर अभी न कहेंगे।’

कुमार – ‘भला कुछ तो कहो?’

तेजसिंह – ‘कुछ भी नहीं।’

देवीसिंह – ‘भला उस्ताद हमें भी बताओगे या नहीं?’

तेजसिंह – ‘क्या! तुमने उस्ताद कह कर पुकारा इससे तुमको बता दें?’

देवीसिंह – ‘झख मारोगे और बताओगे।’

तेजसिंह - (हँस कर) ‘तुम कौन-सा जस लगा आए पहले यह तो कहो?’

देवीसिंह – ‘मैं तो आपकी शागिर्दी में बट्टा लगा आया।’

तेजसिंह – ‘तो बस हो चुका।’

ये बातें हो ही रही थीं कि चोबदार ने आ कर हाथ जोड़ अर्ज किया – ‘महाराज शिवदत्त के दीवान आए हैं।’

सुन कर कुमार ने तेजसिंह की तरफ देखा फिर कहा - ‘अच्छा आने दो, उनके साथ वाले बाहर ही रहें।’

महाराज शिवदत्त के दीवान खेमे में हाजिर हुए और सलाम करके बहुत-से जवाहरात नजर किया। कुमार ने हाथ से छू दिया।

दीवान ने अर्ज किया - ‘यह नजर महाराज शिवदत्त की तरफ से ले आया हूँ। ईश्वर की दया और आपकी कृपा से महाराज कैद से छूट गए हैं। आते ही दरबार करके हुक्म दे दिया कि आज से हमने कुँवर वीरेंद्रसिंह की ताबेदारी कबूल की, हमारे जितने मुलाजिम या ऐयार हैं वे भी आज से कुमार को अपना मालिक समझें, बाद इसके मुझको यह नजर और अपने हाथ का लिखा खत दे कर हुजूर में भेजा है, इस नजर को कबूल किया जाए।’

कुमार ने नजर कबूल कर तेजसिंह के हवाले की और दीवान साहब को बैठने का इशारा किया, वे खत दे कर बैठ गए।

कुछ रात जा चुकी थी, कुमार ने उसी वक्त दरबार आम किया, जब अच्छी तरह दरबार भर गया तब तेजसिंह को हुक्म दिया कि खत जोर से पढ़ो। तेजसिंह ने पढ़ना शुरू किया, लंबे-चौड़े सिरनामे के बाद यह लिखा था -

‘मैं किसी ऐसे सबब से उस तहखाने की कैद से छूटा जो आप ही की कृपा से छूटना कहला सकता है। आप जरूर इस बात को सोचेंगे कि मैं आपकी दया से कैसे छूटा, आपने तो कैद ही किया था, तो ऐसा सोचना न चाहिए। किसी सबब से मैं अपने छूटने का खुलासा हाल नहीं कह सकता और न हाजिर ही हो सकता हूँ। मगर जब मौका होगा और आपको मेरे छूटने का हाल मालूम होगा, यकीन हो जाएगा कि मैंने झूठ नहीं कहा था। अब मैं उम्मीद करता हूँ कि आप मेरे बिल्कुल कसूरों को माफ करके यह नजर कबूल करेंगे। आज से हमारा कोई ऐयार या मुलाजिम आपसे ऐयारी या दगा न करेगा और आप भी इस बात का ख्याल रखें।

- आपका शिवदत्त।’

इस खत को सुन कर सब खुश हो गए। कुमार ने हुक्म दिया कि पंडित बद्रीनाथ जी, जो हमारे यहाँ कैद हैं, लाए जाएँ। जब वे आए कुमार के इशारे से उनके हाथ-पैर खोल दिए गए। उन्हें भारी खिलअत पहना कर दीवान साहब के हवाले किया और हुक्म दिया कि आप दो रोज यहाँ रह कर चुनारगढ़ जाएँ।

फतहसिंह को उनकी मेहमानदारी के लिए हुक्म दे कर दरबार बर्खास्त किया।

बयान - 9

जब दरबार बर्खास्त हुआ आधी रात जा चुकी थी। फतहसिंह दीवान साहब को ले कर अपने खेमे में गए। थोड़ी देर बाद कुमार के खेमे में तेजसिंह, देवीसिंह, और ज्योतिषी जी फिर इकट्ठे हुए। उस वक्त सिवाय इन चारों आदमियों के और कोई वहाँ न था।

कुमार – ‘क्यों तेजसिंह, बुढ़िया की बात तो ठीक निकली।’

तेजसिंह – ‘जी हाँ, मगर महाराज शिवदत्त के खत से तो कुछ और ही बात पाई जाती है।’

देवीसिंह – ‘उसके लिखने का कौन ठिकाना, कहीं वह धोखा न देता हो।’

ज्योतिषी – ‘इस वक्त बहुत सोच-विचार कर काम करने का मौका है। चाहे शिवदत्त कैसी ही सफाई दिखाए मगर दुश्मन का विश्वास कभी न करना चाहिए।’

तेजसिंह – ‘आप ज्योतिषी हैं, विचारिए तो यह खत शिवदत्त ने सच्चे दिल से लिखी है या खुटाई रख कर।’

ज्योतिषी - (कुछ विचार कर) ‘यह खत तो उसने सच्चे दिल से लिखा है, मगर यह विश्वास नहीं होता कि आगे भी उसका दिल साफ बना रहेगा।’

तेजसिंह – ‘आजकल तो ऐसे-ऐसे मामले हो रहे हैं कि किसी के सिर-पैर का कुछ पता ही नहीं लगता। अगर यह खत उसने सच्चे दिल से ही लिखा है तो अपने छूटने का खुलासा हाल क्यों नहीं लिखा?’

ज्योतिषी – ‘इसका भी जरूर कोई सबब होगा।’

कुमार – ‘क्या आप रमल से नहीं बता सकते कि वह कैसे छूटा।’

ज्योतिषी – ‘जी नहीं, तिलिस्म में रमल काम नहीं करता और वह तहखाना तिलिस्मी है जिसमें महाराज शिवदत्त कैद किए गए थे।’

तेजसिंह – ‘कुछ समझ में नहीं आता।’

देवीसिंह – ‘वह चुड़ैल भी कोई पूरी ऐयार मालूम होती है।’

ज्योतिषी – ‘कभी नहीं, मैं सोच चुका हूँ, ऐयारी का तो वह नाम भी नहीं जानती।’

कुमार – ‘खैर, जो कुछ होगा देखा जाएगा, अब कल से तिलिस्म तोड़ने में जरूर हाथ लगाना चाहिए।’

तेजसिंह – ‘हाँ, कल जरूर तिलिस्म की कार्रवाई शुरू हो।’

कुमार – ‘अच्छा अब तुम लोग भी जाओ।’

तीनों ऐयार कुमार से विदा हो अपने-अपने डेरे में गए। दूसरे दिन कुँवर वीरेंद्रसिंह तीनों ऐयारों को साथ ले तिलिस्म में गए, तिलिस्मी किताब और ताली भी साथ ले ली। दालान में पहुँच कर तहखाने का ताला खोल पत्थर की चट्टान को निकाल कर अलग किया और नीचे उतर कर कोठरी में होते हुए बाग में पहुँचे जहाँ थोड़ी-सी जमीन खोद कर छोड़ आए थे।

उसी जमीन को ये लोग मिल कर फिर खोदने लगे। आठ-नौ हाथ जमीन खोदने के बाद एक संदूक मालूम पड़ा, जिसके ऊपर का पल्ला बंद था और ताले का मुँह एक छोटे से तांबे के पत्तर से ढ़का हुआ था, जिससे अंदर मिट्टी न जाने।

कुमार ने चाहा कि संदूक को बाहर निकाल लें मगर न हो सका, ज्यों-ज्यों चारों तरफ से मिट्टी हटाते थे, नीचे से संदूक चौड़ा निकल आता था। कोशिश करने पर भी इसका पता न लग सका कि वह जमीन में कितने नीचे तक गड़ा हुआ है। आखिर लाचार हो कर कुमार ने तिलिस्मी किताब खोली और पढ़ने लगे। यह लिखा हुआ था -

‘ताली में रस्सी बाँध कर जब बाग में उसे घसीटते फिरोगे तो एक जगह वह ताली जमीन से चिपक जाएगी। वहाँ की मिट्टी ताली उठा लेना, बाद इसके उस जमीन को खोदना, जब तक कि एक संदूक का मुँह न दिखाई पड़े। जब संदूक के ऊपर का हिस्सा निकल आए, खोदना बंद कर देना क्योंकि असल में यह संदूक नहीं दरवाजा है। बाग के बीचोंबीच जो फव्वारा है, उसके पूरब तरफ ठीक सात हाथ हट कर जमीन खोदना, एक हाँडी निकलेगी, उसी में उसकी ताली है, उसे ला कर उस तहखाने का ताला खोलना, सीढ़ियाँ दिखलाई पड़ेंगी, उसी रास्ते से नीचे उतरना।

भीतर से वह तहखाना बहुत अँधेरा और धुएँ से भरा हुआ होगा, खबरदार कोई रोशनी मत करना क्योंकि आग या मशाल के लगने ही से वह धुआँ जल उठेगा जिससे बड़ा उपद्रव होगा और तुम लोगों की जान न बचेगी। मुँह पर कपड़ा लपेट कर उस तहखाने में उतरना, टटोलते हुए जिधर रास्ता मिले जल्दी-जल्दी चले जाना जिससे नाक के रास्ते धुआँ दिमाग में न चढ़ने पाए। थोड़ी ही दूर जा कर एक चमकती कोठरी मिलेगी, जिसमें की कुल चीजें दिखाई पड़ती होंगी। तमाम कोठरी में नीचे से ऊपर तक तार लगे होंगे। बहुत खोज करने की कोई जरूरत नहीं, तलवार से जल्दी-जल्दी इन तारों को काट कर बाहर निकल आना।’

इतना पढ़ कर कुमार ने छोड़ दिया। लिखे बमूजिब बाग के बीचोंबीच वाले फव्वारे से सात हाथ पूरब हट कर जमीन खोदी, हाँडी निकली, उसमें से ताली निकाल कर तहखाने का मुँह खोला।

देवीसिंह ने कहा - ‘अब अपने-अपने मुँह पर कपड़ा लपेटते जाओ। तिलिस्म क्या है जान जोखम है, रोशनी मत करो, अँधेरा में टटोलते चलो, आँख रहते अंधे बनो और जल्दी-जल्दी चलो, दिमाग में धुआँ भी न चढ़ने पाए।’

देवीसिंह की बात सुन कर कुमार हँस पड़े। सभी ने मुँह पर कपड़े लपेटे और घुस कर चमकती हुई कोठरी में पहुँचे। जहाँ तक हो सका जल्दी-जल्दी उन तारों को काट कर तहखाने से बाहर निकल आए।

मुँह पर कपड़ा तो लपेटे हुए थे फिर पर भी थोड़ा-बहुत धुआँ दिमाग में चढ़ ही गया जिससे सभी की तबीयत घबरा गई। तहखाने के बाहर निकल कर दो घंटे तक चारों आदमी बेसुध पड़े रहे, जब होश-हवाश ठिकाने हुए तब तेजसिंह ने ज्योतिषी जी से पूछा - ‘अब दिन कितना बाकी है?’

उन्होंने जवाब दिया - ‘अभी चार घंटा बाकी है।’

कुमार ने कहा - ‘अब कोई काम करने का वक्त नहीं रहा। एक घंटे में क्या हो सकता है?’ ज्येतिषी जी की भी यही राय ठहरी। आखिर चारों आदमी बाग से बाहर रवाना हुए और कोठरी तथा तहखाने के रास्ते होकर खँडहर के दालान में आए। पहले की तरह चट्टान को तहखाने के मुँह पर रख, ताला बंद कर दिया और खँडहर के बाहर होकर अपने खेमे में चले आए।

थोड़ी देर आराम करने के बाद कुमार के जी में आया कि जरा जंगल में इधर-उधर घूम कर हवा खानी चाहिए। तेजसिंह से कहा, वह भी इस बात पर मुस्तैद हो गए, आखिर तीनों ऐयारों को साथ ले कर लश्कर के बाहर हुए। कुमार घोड़े पर और तीनों ऐयार पैदल थे।

कुमार धीरे-धीरे जा रहे थे। कोस भर के करीब गए होंगे कि एक मोटे से साखू के पेड़ में कुछ लिखा हुआ एक कागज चिपका नजर पड़ा।

तेजसिंह ने कहा - ‘देखो यह कैसा कागज चिपका है और क्या लिखा है?’ यह सुन कर देवीसिंह ने उस पेड़ के पास जा कर कागज पढ़ा, यह लिखा हुआ था-

‘क्यों, अब तुमको मालूम हुआ कि मैं कैसी आफत हूँ। कहती थी कि मुझसे शादी कर लो तो एक घंटे में तिलिस्म तोड़ कर चंद्रकांता से मिलने की तरकीब बता दूँ। लेकिन तुमने न माना, आखिर मैंने भी गुस्से में आ कर महाराज शिवदत्त को छुड़ा दिया। अब क्या इरादा है? शादी करोगे या नहीं? अगर मंजूर हो तो जवाब लिख कर इसी पेड़ से चिपका दो, मैं तुरंत तुम्हारे पास चली आऊँगी, और अगर नामंजूर हो तो साफ जवाब दे दो। अब की दफा मैं चंद्रकांता और चपला को जान से मार कलेजा ठंडा करूँगी। मुझे तिलिस्म में जाते कितनी देर लगती है। दिन में तेरह दफा जाऊँ और आऊँ। अपनी भलाई और मेरी जवानी की तरफ ख्याल करो। मेरे सामने तुम्हारे ऐयारों की ऐयारी कुछ न चलेगी। उस दिन देवीसिंह ने मेरा पीछा किया था मगर क्या कर सके? मेरी, मानो, जिद्द मत करो, मेरे ही कहने से शिवदत्त तुम्हारा दोस्त बना है, अब भी समझ जाओ।

- तुम्हारी सूरजमुखी।’

इसे पढ़ देवीसिंह ने हाथ के इशारे से सभी को अपने पास बुलाया और कहा - ‘आप लोग भी इसे पढ़ लीजिए।’

आखिर में ‘सूरजमुखी’ पढ़ कर सभी को हँसी आ गई। कुमार ने कहा - ‘देखो इस चुड़ैल ने अपना नाम कैसे मजे का लिखा है।’

तेजसिंह ने ज्योतिषी जी से कहा - ‘देखिए यह सब क्या लिखा है।’

ज्योतिषी जी ने जवाब दिया - ‘चाहे जो भी हो, मगर मैं भी ठीक कहे देता हूँ कि वह चुड़ैल कुमार का कुछ बिगाड़ नहीं सकती। इस लिखावट की तरफ ख्याल न कीजिए।’

कुमार ने कहा - ‘आपका कहना ठीक है मगर वह जो कहती है उसे कर दिखाती है।’

इतना कह कुमार आगे बढ़े। घूमते समय कई पेड़ों पर इसी तरह के लिखे हुए कागज चिपके हुए दिखाई पड़े। ज्योतिषी जी के कहने से कुमार की तबीयत न भरी, उदास हो कर अपने लश्कर में लौट आए और तीनों ऐयारों के साथ अपने खेमे में चले गए।

थोड़ी देर उसी सूरजमुखी की बातचीत होती रही। पहर रात गई होगी जब तेजसिंह ने कुमार से कहा - ‘हम लोग इस वक्त बालादवी को जाते हैं, शायद कोई नई बात नजर पड़ जाए।’ यह कह कर तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी कुमार से विदा हो गश्त लगाने चले गए। कुमार भी कुछ भोजन करके पलँग पर जा लेटे। नींद काहे को आनी थी, पड़े-पड़े कुमारी चंद्रकांता की बेबसी, वनकन्या की चाह, और बूढ़ी चुड़ैल की शैतानी को सोचते-सोचते आधी रात से भी ज्यादा गुजर गई। इतने में खेमे के अंदर किसी के आने की आहट मिली, दरवाजे की तरफ देखा तो तेजसिंह नजर पड़े। बोले - ‘कहो तेजसिंह, कोई नई खबर लाए क्या।’

तेजसिंह – ‘हाँ एक बढ़िया चीज हाथ लगी है?’

कुमार – ‘क्या है? कहाँ है? देखूँ।’

तेजसिंह – ‘खेमे के बाहर चलिए तो दिखाऊँ।’

कुमार – ‘चलो।’

कुँवर वीरेंद्रसिंह तेजसिंह के पीछे-पीछे खेमे के बाहर हुए। देखा कि कुछ दूर पर रोशनी हो रही है और बहुत से आदमी इकट्ठे हैं। पूछा - ‘यह भीड़ कैसी है?’

तेजसिंह ने कहा - ‘चलिए देखिए, बड़ी खुशी की बात है।’

कुमार के पास पहुँचते ही भीड़ हटा दी गई। कई मशाल जल रहे थे जिनकी रोशनी में कुमार ने देखा कि क्रूरसिंह की खून से भरी हुई लाश पड़ी है। कलेजे में एक खंजर घुसा हुआ, अभी तक मौजूद है।

कुमार ने तेजसिंह से कहा - ‘क्यों तेजसिंह, आखिर तुमने इसको मार ही डाला।’

तेजसिंह – ‘भला हम लोग एकाएक इस तरह किसी को मारते हैं?’

कुमार – ‘तो फिर किसने मारा?’

तेजसिंह – ‘मैं क्या जानूँ।’

कुमार – ‘फिर लाश को कहाँ से लाए?’

तेजसिंह – ‘बालादवी करते (गश्त लगाते) हम लोग इस तिलिस्मी खँडहर के पिछवाड़े चले गए। दूर से देखा कि तीन-चार आदमी खड़े हैं। जब तक हम लोग पास जाएँ, वे सब भाग गए। देखा तो क्रूर की लाश पड़ी थी। तब देवीसिंह को भेज यहाँ से डोली और कहार मँगवाए और इस लाश को ज्यों का त्यों उठवा लाए, अभी मरा नहीं है, बदन गर्म है मगर बचेगा नहीं।’

कुमार – ‘बड़े ताज्जुब की बात है। इसे किसने मारा? अच्छा वह खंजर तो निकालो जो इसके कलेजे में घुसा हुआ है।’

तेजसिंह ने खंजर निकाला और पानी से धो कर कुमार के पास लाए। मशाल की रोशनी में उसके कब्जे पर निगाह की तो कुछ खुदा हुआ मालूम पड़ा। खूब गौर करके देखा तो बारीक हरफों में ‘चपला’ का नाम खुदा हुआ था।

तेजसिंह ने ताज्जुब से कहा - ‘देखिए इस पर तो चपला का नाम खुदा है और इस खंजर को मैं बखूबी पहचानता हूँ, यह बराबर चपला के कमर में बँधा रहता था, मगर फिर यहाँ कैसे आया? क्या चपला ही ने इसे मारा है?’

देवीसिंह – ‘चपला बेचारी तो खोह में कुमारी चंद्रकांता के पास बैठी होगी जहाँ चिराग भी न जलता होगा।’

कुमार – ‘तो वहाँ से इस खंजर को कौन लाया?’

तेजसिंह – ‘इसके सिवाय यह भी सोचना चाहिए कि क्रूरसिंह यहाँ क्यों आया? वह तो महाराज शिवदत्त के साथ था और उनका दीवान खुद ही आया हुआ है जो कहता है कि महाराज अब आपसे दुश्मनी नहीं करेंगे।

कुमार – ‘किसी को भेज कर महाराज शिवदत्त के दीवान को बुलाओ।’

तेजसिंह ने देवीसिंह को कहा कि तुम ही जा कर बुला लाओ। देवीसिंह गए, उन्हें नींद से उठा कर कुमार का संदेशा दिया, वे बेचारे भी घबराए हुए जल्दी-जल्दी कुमार के पास आए। फतहसिंह भी उसी जगह पहुँचे। दीवान साहब क्रूरसिंह की लाश देखते ही बोले - ‘बस यह बदमाश तो अपनी सजा को पहुँच चुका मगर इसके साथी अहमद और नाजिम बाकी हैं, उनकी भी यही गति होती तो कलेजा ठंडा होता।’

कुमार ने पूछा - ‘क्या यह आपके यहाँ अब नहीं है।’

दीवान साहब ने जवाब दिया - ‘नहीं, जिस रोज महाराज तहखाने से छूट कर आए और हुक्म दिया कि हमारे यहाँ का कोई भी आदमी कुमार के साथ दुश्मनी का ख्याल न रखे उसी वक्त क्रूरसिंह अपने बाल-बच्चों तथा नाजिम और अहमद को साथ ले कर चुनारगढ़ से भाग गया, पीछे महाराज ने खोज भी कराई मगर कुछ पता न लगा।’

देखते-देखते क्रूरसिंह ने तीन-चार दफा हिचकी ली और दम तोड़ दिया।

कुमार ने तेजसिंह से कहा - ‘अब यह मर गया, इसको ठिकाने पहुँचाओ और खंजर को तुम अपने पास रखो, सुबह देखा जाएगा।’ तेजसिंह ने क्रूरसिंह की लाश को उठवा दिया और सब अपने-अपने खेमे में गए।

बयान - 10

सुबह को कुमार ने स्नान-पूजा से छुट्टी पा कर तिलिस्म तोड़ने का इरादा किया और तीनों ऐयारों को साथ ले तिलिस्म में घुसे। कल की तरह तहखाने और कोठरियों में से होते हुए उसी बाग में पहुँचे। स्याह पत्थर के दालान में बैठ गए और तिलिस्मी किताब खोल कर पढ़ने लगे, यह लिखा हुआ था -

‘जब तुम तहखाने में उतर धुएँ से जो उसके अंदर भरा होगा दिमाग को बचा कर तारों को काट डालोगे, तब उसके थोड़ी ही देर बाद कुल धुआँ जाता रहेगा। स्याह पत्थर की बारहदरी में संगमरमर के सिंहासन पर चौखूटे सुर्ख पत्थर पर कुछ लिखा हुआ तुमने देखा होगा, उसके छूने से आदमी के बदन में सनसनाहट पैदा होती है, बल्कि उसे छूने वाला थोड़ी देर में बेहोश हो कर गिर पड़ता है, मगर ये कुल बातें उन तारों के कटने से जाती रहेंगी क्योंकि अंदर-ही-अंदर यह तहखाना उस बारहदरी के नीचे तक चला गया है और उसी सिंहासन से उन तारों का लगाव है जो नीचे मसालों और दवाइयों में घुसे हुए हैं। दूसरे दिन फिर धुएँ वाले तहखाने में जाना, धुआँ बिल्कुल न पाओगे। मशाल जला लेना और बेखौफ जा कर देखना कि कितनी दौलत तुम्हारे वास्ते वहाँ रखी हुई है। सब बाहर निकाल लो और जहाँ मुनासिब समझो रखो। जब तक बिल्कुल दौलत तहखाने में से निकल न जाए, तब तक दूसरा काम तिलिस्म का मत करो। स्याह बारहदरी में संगमरमर के सिंहासन पर जो चौखूँटा सुर्ख पत्थर रखा है उसको भी ले जाओ। असल में वह एक छोटा-सा संदूक है, जिसके भीतर बहुत-सी नायाब चीजें हैं। उसकी ताली इसी तिलिस्म में तुमको मिलेगी।’

कुमार ने इन सब बातों को फिर दोहरा के पढ़ा, बाद उसके उस धुएँ वाले तहखाने में जाने को तैयार हुए। तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी तीनों ने मशाल बाल ली और कुमार के साथ उस तहखाने में उतरे। अंदर उसी कोठरी में गए जिसमें बहुत-सी तारें काटी थीं। इस वक्त रोशनी में मालूम हुआ कि तारें कटी हुई इधर-उधर फैल रही हैं, कोठरी खूब लंबी-चौड़ी है। सैकड़ों लोहे और चाँदी के बड़े-बड़े संदूक चारों तरफ पड़े हैं, एक तरफ दीवार में खूँटी के साथ तालियों का गुच्छा भी लटक रहा है।

कुमार ने उस ताली के गुच्छे को उतार लिया। मालूम हुआ कि इन्हीं संदूकों की ये तालियाँ हैं। एक संदूक को खोल कर देखा तो हीरे के जड़ाऊ जनाने जेवरों से भरा पाया, तुरंत बंद कर दिया और दूसरे संदूक को खोला, कीमती हीरों से जड़ी नायाब कब्जों की तलवारें और खंजर नजर आए। कुमार ने उसे भी बंद कर दिया और बहुत खुश हो कर तेजसिंह से कहा - ‘बेशक इस कोठरी में बड़ा भारी खजाना है। अब इसको यहाँ खोल कर देखने की कोई जरूरत नहीं, इन संदूकों को बाहर निकलवाओ, एक-एक करके देखते और नौगढ़ भिजवाते जाएँगे। जहाँ तक हो जल्दी इन सभी को उठवाना चाहिए।’

तेजसिंह ने जवाब दिया - ‘चाहे कितनी ही जल्दी की जाए मगर दस रोज से कम में इन संदूकों का यहाँ से निकलना मुश्किल है। अगर आप एक-एक को देख कर नौगढ़ भेजने लगेगे तो बहुत दिन लग जाएँगे और तिलिस्म तोड़ने का काम अटका रहेगा, इससे मेरी समझ में यह बेहतर है कि इन संदूकों को बिना देखे ज्यों-का-त्यों नौगढ़ भेजवा दिया जाए। जब सब कामों से छुट्टी मिलेगी तब खोल कर देख लिया जाएगा। ऐसा करने से किसी को मालूम भी न होगा कि इसमें क्या निकला और दुश्मनों की आँख भी न पड़ेगी। न मालूम कितनी दौलत इसमें भरी हुई है जिसकी हिफाजत के लिए इतना बड़ा तिलिस्म बनाया गया।’

इस राय को कुमार ने पसंद किया और देवीसिंह और ज्योतिषी जी ने भी कहा कि ऐसा ही होना चाहिए। चारों आदमी उस तहखाने के बाहर हुए और उसी मालूमी रास्ते से खँडहर के दालान में आ कर पत्थर की चट्टान से ऊपर वाले तहखाने का मुँह ढाँप, तिलिस्मी ताली से बंद कर, खँडहर से बाहर हो अपने खेमे में चले आए।

आज ये लोग बहुत जल्दी तिलिस्म के बाहर हुए। अभी कुल दो पहर दिन चढ़ा था। कुमार ने तिलिस्म की और खजाने की तालियों का गुच्छा तेजसिंह के हवाले किया और कहा कि अब तुम उन संदूकों को निकलवा कर नौगढ़ भेजवाने का इंतजाम करो।’

बयान - 11

तेजसिंह को तिलिस्म में से खजाने के संदूकों को निकलवा कर नौगढ़ भेजवाने में कई दिन लगे क्योंकि उसके साथ पहरे वगैरह का बहुत कुछ इंतजाम करना पड़ा। रोज तिलिस्म में जाते और पहर दिन जब बाकी रहता तिलिस्म से बाहर निकल आया करते। जब तक कुल असबाब नौगढ़ रवाना नहीं कर दिया गया, तब तक तिलिस्म तोड़ने की कार्रवाई बंद रही।

एक रात कुमार अपने पलँग पर सोए हुए थे। आधी रात जा चुकी थी,कुमारी चंद्रकांता और वनकन्या की याद में अच्छी तरह नींद नहीं आ रही थी, कभी जागते कभी सो जाते। आखिर एक गहरी नींद ने अपना असर यहाँ तक जमाया कि सुबह क्या, बल्कि दो घड़ी दिन चढ़े तक आँख खुलने न दीं।

जब कुमार की नींद खुली अपने को उस खेमे में न पाया जिसमें सोए थे अथवा जो तिलिस्म के पास जंगल में था, बल्कि उसकी जगह एक बहुत सजे हुए कमरे को देखा जिसकी छत में कई बेशकीमती झाड़ और शीशे लटक रहे थे। ताज्जुब में पड़ इधर-उधर देखने लगे। मालूम हुआ कि यह एक बहुत भारी दीवानखाना है, जिसमें तीन तरफ संगमरमर की दीवार और चौथी तरफ बड़े-बड़े खूबसूरत दरवाजे हैं जो इस समय बंद हैं। दीवारों पर कई दीवारें लगी हुई हैं, जिनमें दिन निकल आने पर भी अभी तक मोमबत्तियाँ जल रही हैं। ऊपर उसके चारों तरफ बड़ी-बड़ी खूबसूरत और हसीन औरतों की तस्वीरें लटक रही थीं। लंबी दीवार के बीचोंबीच एक तस्वीर, आदमी के कद के बराबर सोने के चौखटे में जड़ी, दीवार के साथ लगी हुई थी।

कुमार की निगाह तमाम तस्वीरों पर से दोड़ती हुई उस बड़ी तस्वीर पर आ कर अटक गई। सोचने लगे बल्कि धीमी आवाज में इस तरह बोलने लगे जैसे अपने ‘बगल’ में बैठे हुए किसी दोस्त को कोई कहता हो - ‘अहा, इस तस्वीर से बढ़ कर इस दीवानखाने में कोई चीज नहीं है और बेशक यह तस्वीर भी उसी की है जिसके इश्क ने मुझे तबाह कर रखा है। वाह क्या साफ भोली सूरत दिखलाई है।’

कुमार झट से उठ बैठे और उस तस्वीर के पास जा कर खड़े हो गए। दीवानखाने के दरवाजे बंद थे मगर हर एक दरवाजे के ऊपर छोटे-छोटे मोखे (सूराख) बने हुए थे जिनमें शीशे की टट्टियाँ लगी हुई थीं, उन्हीं में से सीधी रोशनी ठीक उस लंबी-चौड़ी तस्वीर पर पड़ रही थी जिसको देखने के लिए कुमार पलँग पर से उतर कर उसके पास गए थे। असल में वह तस्वीर कुमारी चंद्रकांता की थी।

कुमार उस तस्वीर के पास जा कर खड़े हो गए और फिर उसी तरह बोलने लगे जैसे किसी दूसरे को जो पास ही खड़ा हो सुना रहे हैं - ‘अहा, क्या अच्छी और साफ तस्वीर बनी हुई है। इसमें ठीक उतना ही बड़ा कद है, वैसी ही बड़ी-बड़ी आँखें हैं जिनमें काजल की लकीरें कैसी साफ मालूम हो रही हैं। अहा। गालों पर गुलाबीपन कैसा दिखलाया है, बारीक होंठों में पान की सुर्खी और मुस्कुराहट साफ मालूम हो रही है, कानों में बाले, माथे में बेंदी और नाक में नथ तो हई है मगर यह गले की गोप क्या ही अच्छी और साफ बनाई है जिसके बीच के चमकते हुए मानिक और अगल-बगल के कुंदन की उभाड़ (हसली) में तो हद दर्जे की कारीगरी खर्च की गई है। ‘गोप’ ही क्या, सभी गहने अच्छे हैं। गले की माला, हाथों के बाजूबंद, कंगन, छंद, पहुँची, अँगूठी सभी चीजें अच्छी बनाई हैं, और देखो एक बगल चपला दूसरी तरफ चंपा क्या मजे में अपनी ठुड्डी पर उँगली रखे खड़ी हैं।’

‘हाय, चंद्रकांता कहाँ होगी।’ इतना कह एक लंबी साँस ले एकटक उस तस्वीर की तरफ देखने लगे।

ऊपर की तरफ कहीं से पाजेब की छन्न से आवाज आई जिसे सुनते ही कुमार चौंक पड़े। ऊपर की तरफ कई छोटी-छोटी खिड़कियाँ थीं जो सब-की-सब बंद थीं। यह आवाज कहाँ से आई? इस घर में कौन औरत है? इतनी देर तक तो कुमार अपने पूरे होशो-हवास में न थे मगर अब चौंके और सोचने लगे - ‘हैं, इस जगह मैं कैसे आ गया? कौन उठा लाया? उसने मेरे साथ बड़ी नेकी की जो मेरी प्यारी चंद्रकांता की तस्वीर मुझे दिखला दी, मगर कहीं ऐसा न हो कि मैं यह बातें स्वप्न में देखता होऊँ? जरूर यह स्वप्न है, चलो फिर उसी पलँग पर सो रहें।’

यह सोच फिर कुमार उसी पलँग पर आ कर लेट गए, आँखें बंद कर लीं, मगर नींद कहाँ से आती। इतने में फिर पाजेब की आवाज ने कुमार को चौंका दिया। अबकी दफा उठते ही सीधे दरवाजों की तरफ गए और सातों दरवाजों को धक्का दिया, सब खुल गए। एक छोटा-सा हरा-भरा बाग दिखाई पड़ा। दिन अनुमानत पहर-भर के चढ़ चुका होगा।

यह बाग बिल्कुल जंगली फूलों और लताओं से भरा हुआ था, बीच में एक छोटा-सा तालाब भी दिखाई पड़ा। कुमार सीधे तालाब के पास चले गए जो बिल्कुल पत्थर का बना हुआ था। एक तरफ उसके खूबसूरत सीढ़ियाँ उतरने के लिए बनी हुई थीं, ऊपर उन सीढ़ियों के दोनों तरफ दो बड़े-बड़े जामुन के पेड़ लगे हुए थे जो बहुत ही घने थे। तमाम सीढ़ियों पर बल्कि कुछ जल तक उन दोनों की छाया पहुँची हुई थी और दोनों पेड़ों के नीचे छोटे-छोटे संगमरमर के चबूतरे बने हुए थे। बाएँ तरफ के चबूतरे पर नरम गलीचा बिछा हुआ था, बगल में एक टोंटीदार चाँदी का गड़वा, उसके पास ही शहतूत के पत्तो पर बना-बनाया दातून एक तरफ से चिरा हुआ था, बगल में एक छोटी-सी चाँदी की चौकी पर धोती-गमछा और पहनने के खूबसूरत और कीमती कपड़े भी रखे हुए थे।

दाहिनी तरफ वाले संगमरमर के चबूतरे पर चाँदी की एक चौकी थी जिस पर पूजा का सामान धारा हुआ था। छोटे-छोटे कई जड़ाऊ पँचपात्र, तश्तरी, कटोरियाँ सब साफ की हुई थीं और नरम ऊनी आसन बिछा हुआ था जिस पर एक छोटा-सा बेल भी पड़ा था।

कुमार इस बात पर गौर कर रहे थे कि वे कहाँ आ पहुँचे, उन्हें कौन लाया, इस जगह का नाम क्या है तथा यह बाग और कमरा किसका है? इतने में ही उस पेड़ की तरफ निगाह जा पड़ी जिसके नीचे पूजा का सब सामान सजाया हुआ था। एक कागज चिपका हुआ नजर पड़ा। उसके पास गए, देखा कि कुछ लिखा हुआ है। पढ़ा, यह लिखा था –

‘कुँवर वीरेंद्रसिंह, यह सब सामान तुम्हारे ही वास्ते है। इसी बावड़ी में नहाओ और इन सब चीजों को बरतो, क्योंकि आज के दिन तुम हमारे मेहमान हो।’

कुमार और भी सोच में पड़ गए कि यह क्या, सामान तो इतना लंबा-चौड़ा रखा गया है मगर आदमी कोई भी नजर नहीं पड़ता, जरूर यह जगह परियों के रहने की है और वे लोग भी इसी बाग में फिरती होंगी, मगर दिखाई नहीं पड़तीं। अच्छा इस बाग में पहले घूम कर देख लें कि क्या-क्या है फिर नहाना-धोना होगा, आखिर इतना दिन तो चढ़ ही चुका है। अगर कहीं दरवाजा नजर पड़ा तो इस बाग के बाहर हो जाएँगे, मगर नहीं, इस बाग का मालिक कौन है और वह मुझे यहाँ क्यों लाया, जब तक इसका हाल मालूम न हो इस बाग से कैसे जाने को जी चाहेगा? यही सब सोच कर कुमार उस बाग में घूमने लगे।

जिस कमरे में नींद से कुमार की आँख खुली थी वह बाग के पश्चिम तरफ था। पूरब तरफ कोई इमारत न थी क्योंकि निकलता हुआ सूरज पहले ही से दिखाई पड़ा था जो इस वक्त नेजे बराबर ऊँचा आ चुका होगा। घूमते हुए बाग के उत्तर तरफ एक और कमरा नजर पड़ा जो पूरब तरफ वाले कमरे के साथ सटा हुआ था।

कुमार ने चाहा कि उस कमरे की भी सैर करें मगर न हो सका, क्योंकि उसके सब दरवाजे बंद थे, अस्तु आगे बढ़े और जंगली फूलों, बेलों और खूबसूरत क्यारियों को देखते हुए बाग के दक्षिण तरफ पहुँचे। एक छोटी-सी कोठरी नजर पड़ी जिसकी दीवार पर कुछ लिखा हुआ था, पढ़ने से मालूम हुआ कि पाखाना है। उसी जगह लकड़ी की चौकी पर पानी से भरा हुआ एक लोटा भी रखा था।

दिन डेढ़ पहर से ज्यादा चढ़ चुका होगा, कुमार की तबीयत घबराई हुई थी, आखिर सोच-विचार कर चौकी पर से लोटा उठा लिया और पाखाने गए, बाद इसके बावड़ी में हाथ-मुँह धोए, सीढ़ियों के ऊपर जामुन के पेड़ तले चौकी पर बैठ कर दातुन किया, बावली में स्नान करके उन्हीं कपड़ों को पहना जो उनके लिए संगमरमर के चबूतरे पर रखे हुए थे, दूसरे पर बैठ के संध्या-पूजा की।

जब इन सब कामों से छुट्टी पा चुके तो फिर उसी कमरे की तरफ आए जिसमें सोते से आँख खुली थी और कुमारी चंद्रकांता की तस्वीर देखी थी, मगर उस कमरे के कुल किवाड़ बंद पाए, खोलने की कोशिश की मगर खुल न सके। बाहर दालान में खूब कड़ी धूप फैली हुई थी। धूप के मारे तबीयत घबरा उठी, यही जी चाहता था कि कहीं ठंडी जगह मिले तो आराम किया जाए। आखिर उस जगह से हट कुमार घूमते हुए उस दूसरी तरफ वाले कमरे को देखने चले जिसमें किवाड़ पहर भर पहले बंद पाए थे, वे अब खुले हुए दिखलाई पड़े, अंदर गए।

भीतर से यह कमरा बहुत साफ संगमरमर के फर्श का था, मालूम होता था कि अभी कोई इसे धो कर साफ कर गया है। बीच में एक कश्मीरी गलीचा बिछा हुआ था। आगे उसके कई तरह की भोजन की चीजें चाँदी और सोने के बरतनों में सजाई हुई रखी थीं। आसन पर एक खत पड़ा था जिसे कुमार ने उठा कर पढ़ा, यह लिखा हुआ था -

‘आप किसी तरह घबराएँ नहीं, यह मकान आपके एक दोस्त का है जहाँ हर तरह से आपकी खातिर की जाएगी। इस वक्त आप भोजन करके बगल की कोठरी में जहाँ आपके लिए पलँग बिछा है कुछ देर आराम करें।’

इसे पढ़ कर कुमार जी में सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए? भूख बड़े जोर की लगी है पर बिना मालिक के इन चीजों को खाने को जी नहीं चाहता और कुछ पता भी नहीं लगता कि इस मकान का मालिक कौन है जो छिप-छिप कर हमारी खातिरदारी की चीजें तैयार कर रहा है, पर मालूम नहीं होता कि कौन किधर से आता है, कहाँ खाना बनाता है, मालिक मकान या उसके नौकर-चाकर किस जगह रहते हैं या किस राह से आते-जाते हैं। उन लोगों को जब इसी जगह छिपे रहना मँजूर था तो मुझे यहाँ लाने की जरूरत ही क्या थी?

उसी आसन पर बैठे हुए बड़ी देर तक कुमार तरह-तरह की बातें सोचते रहे, यहाँ तक कि भूख ने उन्हें बेताब कर दिया, आखिर कब तक भूखे रहते? लाचार भोजन की तरफ हाथ बढ़ाया, मगर फिर कुछ सोच कर रुक गए और हाथ खींच लिया।

भोजन करने के लिए तैयार होकर फिर कुमार के रुक जाने से बड़े जोर के साथ हँसने की आवाज आई जिसे सुन कर कुमार और भी हैरान हुए। इधर-उधर देखने लगे मगर कुछ पता न लगा, ऊपर की तरफ कई खिड़कियाँ दिखाई पड़ीं मगर कोई आदमी नजर न आया।

कुमार ऊपर वाली खिड़कियों की तरफ देख ही रहे थे कि एक आवाज आई - ‘आप भोजन करने में देर न कीजिए, कोई खतरे की जगह नहीं है।’

भूख के मारे कुमार विकल हो रहे थे, लाचार हो कर खाने लगे। सब चीजें एक-से-एक स्वादिष्ट बनी हुई थीं। अच्छी तरह से भोजन करने के बाद कुमार उठे, एक तरफ हाथ धोने के लिए लोटे में जल रखा हुआ था। अपने हाथ से लोटा उठा, हाथ धोए और उस बगल वाली कोठरी की तरफ चले। जैसा कि पुरजे में लिखा हुआ था उसी के मुताबिक सोने के लिए उस कोठरी में निहायत खूबसूरत पलँग बिछा हुआ पाया।

मसहरी पर लेट कर तरह-तरह की बातें सोचने लगे। इस मकान का मालिक कौन है और मुलाकात न करने में उसने क्या फायदा सोचा है, यहाँ कब तक पड़े रहना होगा, वहाँ लश्कर वालों की हमारी खोज में क्या दशा होगी इत्यादि बातों को सोचते-सोचते कुमार को नींद आ गई और बेखबर सो गए।

दो घंटे रात बीते तक कुमार सोए रहे। इसके बाद बीन की और उसके साथ ही किसी के गाने की आवाज कानों में पड़ी, झट आँखें खोल इधर-उधर देखने लगे, मालूम हुआ कि यह वह कमरा नहीं है जिसमें भोजन करके सोए थे, बल्कि इस वक्त अपने को एक निहायत खूबसूरत सजी हुई बारहदरी में पाया जिसके बाहर से बीन और गाने की आवाज आ रही थी।

कुमार पलँग पर से उठे और बाहर देखने लगे। रात बिल्कुल अधेरी थी मगर रोशनी खूब हो रही थी जिससे मालूम पड़ा कि यह बाग भी वह नहीं है जिसमें दिन को स्नान और भोजन किया था।

इस वक्त यह नहीं मालूम होता था कि यह बाग कितना बड़ा है क्योंकि इसके दूसरे तरफ की दीवार बिल्कुल नजर नहीं आती थी। बड़े-बड़े दरख्त भी इस बाग में बहुत थे। रोशनी खूब हो रही थी। कई औरतें जो कमसिन और खूबसूरत थीं, टहलती और कभी-कभी गाती या बजाती हुई नजर पड़ीं, जिनका तमाशा दूर से खड़े हो कर कुमार देखने लगे। वे आपस में हँसती और ठिठोली करती हुई एक रविश से दूसरी और दूसरी से तीसरी पर घूम रही थीं। कुमार का दिल न माना और ये धीरे धीरे उनके पास जा कर खड़े हो गए।

वे सब कुमार को देख कर रुक गईं और आपस में कुछ बातें करने लगीं, जिसको कुमार बिल्कुल नहीं समझ सकते थे, मगर उनके हाथ-पैर हिलाने के भाव से मालूम होता था कि वे कुमार को देख कर ताज्जुब कर रही हैं। इतने में एक औरत आगे बढ़ कर कुमार के पास आई और उनसे बोली - ‘आप कौन हैं और बिना हुक्म इस बाग में क्यों चले आए?’

कुमार ने उसे नजदीक से देखा तो निहायत हसीन और चंचल पाया। जवाब दिया - ‘मैं नहीं जानता यह बाग किसका है, अगर हो सके तो बताओ कि यहाँ का मालिक कौन है?’

औरत – ‘हमने जो कुछ पूछा है पहले उसका जवाब दे लो फिर हमसे जो पूछोगे सो बता देंगे।’

कुमार – ‘मुझे कुछ भी मालूम नहीं कि मैं यहाँ क्यों कर आ गया।’

औरत – ‘क्या खूब। कैसे सीधे-सादे आदमी हैं (दूसरी औरत की तरफ देख कर) बहिन, जरा इधर आना, देखो कैसे भोले-भाले चोर इस बाग में आ गए हैं जो अपने आने का सबब भी नहीं जानते।’

उस औरत के आवाज देने पर सभी ने आ कर कुमार को घेर लिया और पूछना शुरू किया - ‘सच बताओ तुम कौन हो और यहाँ क्यों आए?’

दूसरी औरत – ‘जरा इनके कमर में तो हाथ डालो, देखो कुछ चुराया तो नहीं?’

तीसरी – ‘जरूर कुछ न कुछ चुराया होगा।’

चौथी – ‘अपनी सूरत इन्होंने कैसी बना रखी है, मालूम होता है कि किसी राजा के लड़के हैं।’

पहली – ‘भला यह तो बताइए कि ये कपड़े आपने कहाँ से चुराए?’

इन सभी की बातें सुन कर कुमार बड़े हैरान हुए। जी में सोचने लगे कि अजब आफत में आ फँसे, कुछ समझ में नहीं आता, जरूर इन्हीं लोगों की बदमाशी से मैं यहाँ तक पहुँचा और यही लोग अब मुझे चोर बनाती हैं। यों ही कुछ देर तक सोचते रहे, बाद इसके फिर बातचीत होने लगी।

कुमार – ‘मालूम होता है कि तुम्हीं लोगों ने मुझे यहाँ ला कर रखा है।’

एक औरत – ‘हम लोगों को क्या गरज थी जो आपको यहाँ लाते या आप ही खुश हो हमें क्या दे देंगे जिसकी उम्मीद में हम लोग ऐसा करते। अब यह कहने से क्या होता है, जरूर चोरी की नीयत से ही आप आए हैं।’

कुमार – ‘मुझको यह भी मालूम नहीं कि यहाँ आने या जाने का रास्ता कौन-सा है। अगर यह भी बतला दो तो मैं यहाँ से चला जाऊँ।’

दूसरी – ‘वाह, क्या बेचारे अनजान बनते हैं। यहाँ तक आए भी और रास्ता भी नहीं मालूम।’

तीसरी – ‘बहिन, तुम नहीं समझतीं यह चालाकी से भागना चाहते हैं।’

चौथी – ‘अब इनको गिरफ्तार करके ले चलना चाहिए।’

कुमार – ‘भला मुझे कहाँ ले चलोगी?’

एक औरत – ‘अपने मालिक के सामने।’

कुमार – ‘तुम्हारे मालिक का क्या नाम है?’

एक – ‘ऐसी किसकी मजाल है जो हमारे मालिक का नाम ले।’

कुमार – ‘क्या तुम्हें अपने मालिक का नाम बताने में भी कुछ हर्ज है।’

दूसरी – ‘हर्ज! नाम लेते ही जुबान कट कर गिर पड़ेगी।’

कुमार – ‘तो तुम लोग अपने मालिक से बातचीत कैसे करती हो?’

दूसरी – ‘मालिक की तस्वीर से बातचीत करते हैं, सामना नहीं होता।’

कुमार – ‘अगर कोई पूछे कि तुम किसकी नौकर हो तो कैसे बताओगी?’

तीसरी – ‘हम लोग अपने मालिक राजकुमारी की तस्वीर अपने गले में लटकाए रहती हैं जिससे मालूम हो कि हम सब फलाने की लौंडी हैं।’

कुमार – ‘क्या यहाँ कई राजकुमारी हैं जो लौंडियों की पहचान में गड़बड़ी हो जाने का डर है?’

पहली – ‘नहीं, यहाँ सिर्फ दो राजकुमारी हैं और दोनों के यहाँ यही चलन है, कोई अपने मालिक का नाम नहीं ले सकता। जब पहचान की जरूरत होती है तो गले की तस्वीर दिखा दी जाती है।’

कुमार – ‘भला मुझे भी वह तस्वीर दिखाओगी?’

‘हाँ-हाँ, लो देख लो।’ कह कर एक ने अपने गले की छोटी-सी तस्वीर जो धुकधुकी की तरह लटक रही थी निकाल कर कुमार को दिखाई जिसे देखते ही उनके होश उड़ गए।

‘हैं। यह तस्वीर तो कुमारी चंद्रकांता की है। तो क्या ये सब उन्हीं की लौंडी हैं। नहीं-नहीं, कुमारी चंद्रकांता यहाँ भला कैसे आएँगी? उनका राज्य तो विजयगढ़ है। अच्छा पूछें तो यह मकान किस शहर में है?’

कुमार – ‘भला यह तो बताओ इस शहर का क्या नाम है जिसमें हम इस वक्त हैं।’

एक - इस शहर का नाम चित्रनगर है क्योंकि सभी के गले में कुमारी की तस्वीर लटकती रहती है।’

कुमार – ‘और इस शहर का यह नाम कब से पड़ा?’

एक – ‘हजारों बरस से यही नाम है और इसी रंग की तस्वीर कई पुश्त से हम लोगों के गले में है। पहले मेरी परदादी को सरकार से मिली थी, होते-होते अब मेरे गले में आ गई।’

कुमार – ‘क्या तब से यही राजकुमारी यहाँ का राज्य करती आई हैं, कोई इनका माँ-बाप नहीं है?’

दूसरी – ‘अब यह सब हम लोग क्या जानें, कुछ राजकुमारी से तो मुलाकात होती नहीं जो मालूम हो कि यही हैं या दूसरी, जवान हैं या बूढ़ी हो गईं।’

कुमार – ‘तो कचहरी कौन करता है?’

दूसरी – ‘एक बड़ी-सी तस्वीर हम लोगों के मालिक राजकुमारी की है, उसी के सामने दरबार लगता है। जो कुछ हुक्म होता है उसी तस्वीर से आवाज आती है।’

कुमार – ‘तुम लोगों की बातों ने तो मुझे पागल बना दिया है। ऐसी बातें करती हो जो कभी मुमकिन ही नहीं, अक्ल में नहीं आ सकतीं। अच्छा उस दरबार में मुझे भी ले जा सकती हो?’

औरत – ‘इसमें कहने की कौन-सी बात है, आखिर आपको गिरफ्तार करके उसी दरबार में तो ले चलना है, आप खुद ही देख लीजिएगा।’

कुमार – ‘जब तुम लोगों का मालिक कोई भी नहीं या अगर है तो एक तस्वीर, तब हमने उसका क्या बिगाड़ा? क्यों हमें बाँध के ले चलोगी?’

औरत – ‘हमारी राजकुमारी सभी की नजरों से छिप कर अपने राज्य भर में घूमा करती हैं और अपने मकान और बगीचों की सैर किया करती हैं मगर किसी की निगाह उन पर नहीं पड़ती। हम लोग रोज बाग और कमरों की सफाई करती हैं, और रोज ही कमरों का सामान, फर्श, पलँग के बिछौने वगैरह ऐसे हो जाते हैं जैसे किसी के मसरफ (इस्तेमाल) में आए हों। वह रौंदे जाते और मैले भी हो जाते हैं, इससे मालूम होता है कि हमारी राजकुमारी सभो की नजरों से छिप कर घूमा करती हैं, जिनकी हजारों बरस की उम्र है, और इसी तरह हमेशा जीती रहेंगी।

दूसरी – ‘बहिन तुम इनकी बातों का जवाब कब तक देती रहोगी? ये तो इसी तरह जान बचाना चाहते हैं?’

पहली – ‘नहीं-नहीं, ये जरूर किसी रईस राजा के लड़के हैं, इनकी बातों का जवाब देना मुनासिब है और इनको इज्जत के साथ कैद करके दरबार में ले चलना चाहिए।’

तीसरी - भला इनका और इनके बाप का नामधाम भी तो पूछ लो कि इसी तरह राजा का लड़का समझ लोगी। (कुमार की तरफ देख कर) क्यों जी आप किसके लड़के हैं और आपका नाम क्या है?’

कुमार – ‘मैं नौगढ़ के महाराज सुरेंद्रसिंह का लड़का वीरेंद्रसिंह हूँ।’

इनका नाम सुनते ही वे सब खुश हो कर आपस में कहने लगीं - ‘वाह, इनको तो जरूर पकड़ के ले चलना चाहिए, बहुत कुछ इनाम मिलेगा, क्योंकि इन्हीं को गिरफ्तार करने के लिए सरकार की तरफ से मुनादी की गई थी, इन्होंने बड़ा भारी नुकसान किया है, सरकारी तिलिस्म तोड़ डाला और खजाना लूट कर घर ले गए। अब इनसे बात न करनी चाहिए। जल्दी इनके हाथ-पैर बाँधो और इसी वक्त सरकार के पास ले चलो। अभी आधी रात नहीं गई है, दरबार होता होगा, देर हो जाएगी तो कल दिन भर इनकी हिफाजत करनी पड़ेगी, क्योंकि हमारे सरकार का दरबार रात ही को होता है।’

इन सभी की ये बातें सुन कर कुमार की तो अक्ल चकरा गई। कभी ताज्जुब, कभी सोच, कभी घबराहट से इनकी अजब हालत हो गई। आखिर, उन औरतों की तरफ देख कर बोले - ‘फसाद क्यों करती हो, हम तो आप ही तुम लोगों के साथ चलने को तैयार हैं, चलो देखें तुम्हारी राजकुमारी का दरबार कैसा है।’

एक – ‘जब आप खुद चलने को तैयार हैं तब हम लोगों को ज्यादा बखेड़ा करने की क्या जरूरत है, चलिए।’

कुमार – ‘चलो।’

वे सब औरतें गिनती में नौ थीं, चार कुमार के आगे चार पीछे हो उनको ले कर रवाना हुईं और एक यह कह कर चली गई कि मैं पहले खबर करती हूँ कि फलाने डाकू को हम लोगों ने गिरफ्तार किया है जिसको साथ वाली सखियाँ लिए आती हैं।

वे सब कुमार को लिए बाग के एक कोने में गईं जहाँ दूसरी तरफ निकल जाने के लिए छोटा-सा दरवाजा नजर पड़ा जिसमें शीशे की सिर्फ एक सफेद हाँडी जल रही थी।

वे सब कुमार को लिए हुए इसी दरवाजे में घुसीं। थोड़ी दूर जा कर दूसरा बाग जो बहुत सजा था नजर पड़ा जिसमें हद से ज्यादा रोशनी हो रही थी और कई चोबदार हाथ में सोने-चाँदी के आसे लिए इधर-उधर टहल रहे थे। इनके अलावे और भी बहुत से आदमी घूमते-फिरते दिखाई पड़े।

उन औरतों से किसी ने कुछ बातचीत या रोक-टोक न की, ये सब कुमार को लिए हुए बराबर धड़धड़ाती हुई एक बड़े भारी दीवानखाने में पहुँचीं जहाँ की सजावट और कैफियत देख कुमार के होश जाते रहे।

सबसे पहले कुमार की निगाह उस बड़ी तस्वीर के ऊपर पड़ी जो ठीक सामने सोने के जड़ाऊ सिंहासन पर रखी हुई थी। मालूम होता था कि सिंहासन पर कुमारी चंद्रकांता सिर पर मुकुट धारे बैठी हैं, ऊपर छत्र लगा हुआ है, और सिंहासन के दोनों तरफ दो जिंदा शेर बैठे हुए हैं जो कभी-कभी डकारते और गुर्राते भी थे। बाद इसके बड़े-बड़े सरदार बेशकीमती पोशाकें पहने सिंहासन के सामने दो-पट्टी कतार बाँधे सिर झुकाए बैठे थे। दरबार में सन्नाटा छाया हुआ था, सब चुप मारे बैठे थे।

चंद्रकांता की तस्वीर और ऐसे दरबार को देख कर एक दफा तो कुमार पर भी रोब छा गया। चुपचाप सामने खड़े हो गए, उनके पीछे और दोनों बगल वे सब औरतें खड़ी हो गईं जिन्होंने कुमार को चोरों की तरह हाजिर किया था।

तस्वीर के पीछे से आवाज आई - ‘ये कौन हैं?’

उन औरतों में से एक ने जवाब दिया - ‘ये सरकारी बाग में घूमते हुए पकड़े गए हैं और पूछने से मालूम हुआ कि इनका नाम वीरेंद्रसिंह है, विक्रमी तिलिस्म इन्होंने ही तोड़ा है।’ फिर आवाज आई - ‘अगर यह सच है तो इनके बारे में बहुत कुछ विचार करना पड़ेगा, इस वक्त ले जा कर हिफाजत से रखो, फिर हुक्म पा कर दरबार में हाजिर करना।’

उन लौंडियों ने कुमार को एक अच्छे कमरे में ले जा कर रखा जो हर तरह से सजा हुआ था मगर कुमार अपने ख्याल में डूबे हुए थे। नए बाग की सैर और तस्वीर के दरबार ने उन्हें और अचंभे में डाल दिया था। गरदन झुकाए सोच रहे थे। पहले बाग में जो ताज्जुब की बातें देखीं उनका तो पता लगा ही नहीं, इस बाग में तो और भी बातें दिखाई देती हैं जिसमें कुमारी चंद्रकांता की तस्वीर और उनके दरबार का लगना और भी हैरान कर रहा है। इसी सोच-विचार में गरदन झुकाए लौंडियों के साथ चले गए, इसका कुछ भी ख्याल नहीं कि कहाँ जाते हैं, कौन लिए जाता है, या कैसे सजे हुए मकान में बैठाए गए हैं।

जमीन पर फर्श बिछा हुआ और गद्दी लगी हुई थी, बड़े तकिए के सिवाय और भी कई तकिए पड़े हुए थे। कुमार उस गद्दी पर बैठ गए और दो घंटे तक सिर झुकाए ऐसा सोचते रहे कि तनोबदन की बिल्कुल खबर न रही। प्यास मालूम हुई तो पानी के लिए इधर-उधर देखने लगे। एक लौंडी सामने खड़ी थी, उसने हाथ जोड़ कर पूछा - ‘क्या हुक्म होता है?’ जिसके जवाब में कुमार ने हाथ के इशारे से पानी माँगा। सोने के कटोरे में पानी भर के लौंडी ने कुमार के हाथ में दिया, पीते ही एकदम उनके दिमाग तक ठंडक पहुँच गई, साथ ही आँखों में झपकी आने लगी और धीरे-धीरे बिल्कुल बेहोश हो कर उसी गद्दी पर लेट गए।

बयान - 12

कुँवर वीरेंद्रसिंह के गायब होने से उनके लश्कर में खलबली पड़ गई।

तेजसिंह और देवीसिंह ने घबरा कर चारों तरफ खोज की मगर कुछ पता न लगा। दिन भर बीत जाने पर ज्योतिषी जी ने तेजसिंह से कहा - ‘रमल से जान पड़ता है कि कुमार को कई औरतें बेहोशी की दवा सुँघा बेहोश कर उठा ले गई हैं और नौगढ़ के इलाके में अपने मकान के अंदर कैद कर रखा है, इससे ज्यादा कुछ मालूम नहीं होता।’

ज्योतिषी जी की बात सुन कर तेजसिंह बोले - ‘नौगढ़ में तो अपना ही राज्य है, वहाँ कुमार के दुश्मनों का कहीं ठिकाना नहीं। महाराज सुरेंद्रसिंह की अमलदारी से उनकी रियाया बहुत खुश तथा उनके और उनके खानदान के लिए वक्त पर जान देने को तैयार है, फिर कुमार को ले जा कर कैद करने वाला कौन हो सकता है।’

बहुत देर तक सोच-विचार करते रहने के बाद तेजसिंह, कुमार की खोज में जाने के लिए तैयार हुए। देवीसिंह और ज्योतिषी जी ने भी उनका साथ दिया और ये तीनों नौगढ़ की तरफ रवाना हुए। जाते वक्त महाराज शिवदत्त के दीवान को चुनारगढ़ विदा करते गए जो कुँवर वीरेंद्रसिंह की मुलाकात को महाराज शिवदत्त की तरफ से तोहफा और सौगात ले कर आए हुए थे, और तिलिस्मी किताब फतहसिंह सिपहसालार के सुपुर्द कर दी, जो कुँवर वीरेंद्रसिंह के गायब हो जाने के बाद उनके पलँग पर पड़ी हुई पाई गई थी।

ये तीनों ऐयार आधी रात गुजर जाने के बाद नौगढ़ की तरफ रवाना हुए। पाँच कोस तक बराबर चले गए, सवेरा होने पर तीनों एक घने जंगल में रुके और अपनी सूरतें बदल कर फिर रवाना हुए। दिन भर चल कर भूखे-प्यासे शाम को नौगढ़ की सरहद पर पहुँचे। इन लोगों ने आपस में यह राय ठहराई कि किसी से मुलाकात न करें बल्कि जाहिर भी न होकर छिपे-ही-छिपे कुमार की खोज करें।

तीनों ऐयारों ने अलग-अलग हो कर कुमार का पता लगाना शुरू किया। कहीं मकान में घुस कर, कहीं बाग में जा कर, कहीं आदमियों से बातें करके उन लोगों ने दरियाफ्त किया मगर कहीं पता न लगा। दूसरे दिन तीनों इकट्ठे हो कर सूरत बदले हुए राजा सुरेंद्रसिंह के दरबार में गए और एक कोने में खड़े हो बातचीत सुनने लगे।

उसी वक्त कई जासूस दरबार में पहुँचे जिनकी सूरत से घबराहट और परेशानी साफ मालूम होती थी। तेजसिंह के बाप दीवान जीतसिंह ने उन जासूसों से पूछा - ‘क्या बात है जो तुम लोग इस तरह घबराए हुए आए हो?’

एक जासूस ने कुछ आगे बढ़ कर जवाब दिया - ‘लश्कर से कुमार की खबर लाया हूँ।’

जीतसिंह – ‘क्या हाल है, जल्द कहो?’

जासूस – ‘दो रोज से उनका कहीं पता नहीं है।’

जीतसिंह – ‘क्या कहीं चले गए?’

जासूस – ‘जी नहीं, रात को खेमे में सोए हुए थे, उसी हालत में कुछ औरतें उन्हें उठा ले गईं, मालूम नहीं कहाँ कैद कर रखा है।’

जीतसिंह - (घबरा कर) ‘यह कैसे मालूम हुआ कि उन्हें कई औरतें ले गईं?’

जासूस – ‘उनके गायब हो जाने के बाद ऐयारों ने बहुत तलाश किया। जब कुछ पता न लगा तो ज्योतिषी जगन्नाथ जी ने रमल से पता लगा कर कहा कि कई औरतें उन्हें ले गई हैं और इस नौगढ़ के इलाके में ही कहीं कैद कर रखा है?’

जीतसिंह - (ताज्जुब से) ‘इसी नौगढ़ के इलाके में। यहाँ तो हम लोगों का कोई दुश्मन नहीं है।’

जासूस – ‘जो कुछ हो, ज्योतिषी जी ने तो ऐसा ही कहा है।’

जीतसिंह – ‘फिर तेजसिंह कहाँ गया?’

जासूस – ‘कुमार की खोज में कहीं गए हैं, देवीसिंह और ज्योतिषी जी भी उनके साथ हैं। मगर उन लोगों के जाते ही हमारे लश्कर पर आफत आई?’

जीतसिंह – (चौंक कर) ‘हमारे लश्कर पर क्या आफत आई?’

जासूस – ‘मौका पा कर महाराज शिवदत्त ने हमला कर दिया।’

हमले का नाम सुनते ही तेजसिंह वगैरह ऐयार लोग जो सूरत बदले हुए एक कोने में खड़े थे आगे की सब बातें बड़े गौर से सुनने लगे।

जीतसिंह – ‘पहले तो तुम लोग यह खबर लाए थे कि महाराज शिवदत्त ने कुमार की दोस्ती कबूल कर ली और उनका दीवान बहुत कुछ नजर ले कर आया है, अब क्या हुआ?’

जासूस - उस वक्त की वह खबर बहुत ठीक थी, पर आखिर में उसने धोखा दिया और बेईमानी पर कमर बाँध ली।’

जीतसिंह – ‘उसके हमले का क्या नतीजा हुआ?’

जासूस – ‘पहर भर तक तो फतहसिंह सिपहसालार खूब लड़े, आखिर शिवदत्त के हाथ से जख्मी हो कर गिरफ्तार हो गए। उनके गिरफ्तार होते ही बेसिर की फौज तितिर-बितिर हो गई।’

अभी तक सुरेंद्रसिंह चुपचाप बैठे इन बातों को सुन रहे थे। फतहसिंह के गिरफ्तार हो जाने और लश्कर के भाग जाने का हाल सुन आँखें लाल हो गईं, दीवान जीतसिंह की तरफ देख कर बोले - ‘हमारे यहाँ इस वक्त फौज तो है नहीं, थोड़े-बहुत सिपाही जो कुछ हैं, उनको ले कर इसी वक्त कूच करूँगा। ऐसे नामर्द को मारना कोई बड़ी बात नहीं है।’

जीतसिंह – ‘ऐसा ही होना चाहिए, सरकार के कूच की बात सुन कर भागी हुई फौज भी इकट्ठी हो जाएगी।

ये बातें हो ही रही थीं कि दो जासूस और दरबार में हाजिर हुए। पूछने से उन्होंने कहा - ‘कुमार के गायब होने, ऐयारों के उनकी खोज में जाने, फतहसिंह के गिरफ्तार हो जाने और फौज के भाग जाने की खबर सुन कर महाराज जयसिंह अपनी कुल फौज ले कर चुनारगढ़ पर चढ़ गए हैं। रास्ते में खबर लगी कि फतहसिंह के गिरफ्तार होने के दो ही पहर बाद रात को महाराज शिवदत्त भी कहीं गायब हो गए और उनके पलँग पर एक पुर्जा पड़ा हुआ मिला जिसमें लिखा हुआ था कि इस बेईमान को पूरी सजा दी जाएगी, जन्म भर कैद से छुट्टी न मिलेगी। बाद इसके सुनने में आया कि फतहसिंह भी छूट कर तिलिस्म के पास आ गए और कुमार की फौज फिर इकट्ठी हो रही है।’

इस खबर को सुन कर राजा सुरेंद्रसिंह ने दीवान जीतसिंह की तरफ देखा।

जीतसिंह – ‘जो कुछ भी हो महाराज जयसिंह ने चढ़ाई कर ही दी, मुनासिब है कि हम भी पहुँच कर चुनारगढ़ का बखेड़ा ही तय कर दें, यह रोज-रोज की खटपट अच्छी नहीं।’

राजा - तुम्हारा कहना ठीक है, ऐसा ही किया जाए, क्या कहें हमने सोचा था कि लड़के के ही हाथ से चुनारगढ़ फतह हो, जिससे उसका हौसला बढ़े, मगर अब बर्दाश्त नहीं होता।

इन सब बातों और खबरों को सुन तीनों ऐयार वहाँ से रवाना हो गए और एकांत में जा कर आपस में सलाह करने लगे।

तेजसिंह – ‘अब क्या करना चाहिए?’

देवीसिंह – ‘चाहे जो भी हो पहले तो कुमार को ही खोजना चाहिए।’

तेजसिंह – ‘मैं कहता हूँ कि तुम लश्कर की तरफ जाओ और हम दोनों कुमार की खोज करते हैं।’

ज्योतिषी – ‘मेरी बात मानो तो पहले एक दफा उस तहखाने (खोह) में चलो जिसमें महाराज शिवदत्त को कैद किया था।’

तेजसिंह – ‘उसका तो दरवाजा ही नहीं खुलता।’

ज्योतिषी – ‘भला चलो तो सही, शायद किसी तरकीब से खुल जाए।’

तेजसिंह – ‘इसकी कोशिश तो आप बेफायदे करते हैं, अगर दरवाजा खुला भी तो क्या काम निकलेगा?’

ज्योतिषी – ‘अच्छा चलो तो।’

तेजसिंह – ‘खैर, चलो।’

तीनों ऐयार तहखाने की तरफ रवाना हुए।

बयान - 13

कुँवर वीरेंद्रसिंह धीरे-धीरे बेहोश हो कर उस गद्दी पर लेट गए। जब आँख खुली अपने को एक पत्थर की चट्टान पर सोए पाया। घबरा कर इधर-उधर देखने लगे। चारों तरफ ऊँची-ऊँची पहाड़ी, बीच में बहता चश्मा, किनारे-किनारे जामुन के दरख्तों की बहार देखने से मालूम हो गया कि यह वही तहखाना है जिसमें ऐयार लोग कैद किए जाते थे, जिस जगह तेजसिंह ने महाराज शिवदत्त को मय उनकी रानी के कैद किया था या कुमार ने पहाड़ी के ऊपर चंद्रकांता और चपला को देखा था। मगर पास न पहुँच सके थे।

कुमार घबरा कर पत्थर की चट्टान पर से उठ बैठे और उस खोह को अच्छी तरह पहचानने के लिए चारों तरफ घूमने और हर एक चीज को देखने लगे। अब शक जाता रहा और बिल्कुल यकीन हो गया कि यह वही खोह है, क्योंकि उसी तरह कैदी महाराज शिवदत्त को जामुन के पेड़ के नीचे पत्थर की चट्टान पर लेटे और पास ही उनकी रानी को बैठे और पैर दबाते देखा। इन दोनों का रुख दूसरी तरफ था, कुमार ने उनको देखा मगर उनको कुमार का कुछ गुमान तक भी न हुआ।

कुँवर वीरेंद्रसिंह दौड़े हुए उस पहाड़ी के नीचे गए जिसके ऊपर वाले दालान में कुमारी चंद्रकांता और चपला को छोड़ तिलिस्म तोड़ने, खोह के बाहर गए थे। इस वक्त भी कुमारी को उस दिन की तरह वही मैली और फटी साड़ी पहने, उसी तौर से चेहरे और बदन पर मैल चढ़ी और बालों की लट बाँधे बैठे हुए देखा।

देखते ही फिर वही मुहब्बत की बला सिर पर सवार हो गई। कुमारी को पहले की तरह बेबसी की हालत में देख आँखों में आँसू भर आए, गला रुक गया और कुछ शर्मा के सामने से हट एक पेड़ की आड़ में खड़े हो जी में सोचने लगे - ‘हाय, अब कौन मुँह ले कर कुमारी चंद्रकांता के सामने जाऊँ और उससे क्या बातचीत करूँ? पूछने पर क्या यह कह सकूँगा कि तुम्हें छुड़ाने के लिए तिलिस्म तोड़ने गए थे लेकिन अभी तक वह नहीं टूटा। हा। मुझसे तो यह बात कभी नहीं कही जाएगी। क्या करूँ वनकन्या के फेर में तिलिस्म तोड़ने की भी सुध जाती रही और कई दिन का हर्ज भी हुआ। जब कुमारी पूछेगी कि तुम यहाँ कैसे आए तो क्या जवाब दूँगा? शिवदत्त भी यहाँ दिखाई देता है। लश्कर में तो सुना था कि वह छूट गया बल्कि उसका दीवान खुद नजर ले कर आया था, तब यह क्या मामला है।’

इन सब बातों को कुमार सोच ही रहे थे कि सामने से तेजसिंह आते दिखाई पड़े, जिनके कुछ दूर पीछे देवीसिंह और पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी भी थे। कुमार उनकी तरफ बढ़े। तेजसिंह सामने से कुमार को अपनी तरफ आते देख दौड़े और उनके पास जा कर पैरों पर गिर पड़े, उन्होंने उठा कर गले से लगा लिया। देवीसिंह से भी मिले और ज्योतिषी जी को दंडवत किया। अब ये चारों एक पेड़ के नीचे पत्थर पर बैठ कर बातचीत करने लगे।

कुमार - ‘देखो तेजसिंह, वह सामने कुमारी चंद्रकांता उसी दिन की तरह उदास और फटे कपड़े पहने बैठी है और बगल में उसकी सखी चपला बैठी अपने आँचल से उनका मुँह पोछ रही है।’

तेजसिंह – ‘आपसे कुछ बातचीत भी हुई?’

कुमार - ‘नहीं कुछ नहीं, अभी मैं यही सोच रहा था कि उसके सामने जाऊँ या नहीं।’

तेजसिंह – ‘कितने दिन से आप यह सोच रहे हैं?’

कुमार - ‘अभी मुझको इस घाटी में आए दो घड़ी भी नहीं हुई।’

तेजसिंह - (ताज्जुब से) ‘क्या आप अभी इस खोह में आए हैं? इतने दिनों तक कहाँ रहे? आपको लश्कर से आए तो कई दिन हुए। इस वक्त आपको यकायक यहाँ देख के मैंने सोचा कि कुमारी के इश्क में चुपचाप लश्कर से निकल कर इस जगह आ बैठे हैं।’

कुमार - ‘नहीं, मैं अपनी खुशी से लश्कर से नहीं आया, न मालूम कौन उठा ले गया था।’

तेजसिंह - (ताज्जुब से) ‘हैं। क्या अभी तक आपको यह भी मालूम नहीं हुआ कि लश्कर से आपको कौन उठा ले गया था।’

कुमार - ‘नहीं, बिल्कुल नहीं।’

इतना कह कर कुमार ने अपना कुल हाल पूरा-पूरा कह सुनाया। जब तक कुमार अपनी कैफियत कहते रहे तीनों ऐयार अचंभे में भरे सुनते रहे। जब कुमार ने अपनी कथा समाप्त की तब तेजसिंह ने ज्योतिषी जी से पूछा - ‘यह क्या मामला है, आप कुछ समझे?’

ज्योतिषी – ‘कुछ नहीं, बिल्कुल ख्याल में ही नहीं आता कि कुमार कहाँ गए थे और उन्हें ऐसे तमाशे दिखलाने वाला कौन था।’

कुमार - ‘तिलिस्म तोड़ने के वक्त जो ताज्जुब की बातें देखी थीं, उनसे बढ़ कर इन दो-तीन दिनों में दिखाई पड़ीं।’

देवीसिंह – ‘किसी छोटे दिल के डरपोक आदमी को ऐसा मौका पड़े तो घबरा के जान ही दे दे।’

ज्योतिषी – ‘इसमें क्या संदेह है।’

कुमार - ‘और एक ताज्जुब की बात सुनो, शिवदत्त भी यहाँ दिखाई पड़ रहा है।’

तेजसिंह – ‘सो कहाँ?’

कुमार - (हाथ का इशारा करके) ‘उस पेड़ के नीचे नजर दौड़ाओ।’

तेजसिंह – ‘हाँ ठीक तो है, मगर यह क्या मामला है। चलो उससे बात करें, शायद कुछ पता लगे।’

कुमार - ‘उसके सामने ही कुमारी चंद्रकांता पहाड़ी के ऊपर है, पहले उससे कुछ हाल पूछना चाहिए। मेरा जी तो अजब पेच में पड़ा हुआ है, कोई बात बैठती ही नहीं कि वह क्या पूछेगी और मैं क्या जवाब दूँगा।’

तेजसिंह – ‘आशिकों की यही दशा होती है, कोई बात नहीं, चलिए मैं आपकी तरफ से बात करूँगा।’

चारों आदमी शिवदत्त की तरफ चले। पहले उस पहाड़ी के नीचे गए जिसके ऊपर छोटे दालान में कुमारी चंद्रकांता और चपला बैठी थीं। कुमारी की निगाह दूसरी तरफ थी, चपला ने इन लोगों को देखा, वह उठ खड़ी हुई और आवाज दे कर कुमार के राजी-खुशी का हाल पूछने लगी, जिसका जवाब खुद कुमार ने दे कर कुमारी चंद्रकांता के मिजाज का हाल पूछा। चपला ने कहा - ‘इनकी हालत तो देखने ही से मालूम होती होगी, कहने की जरूरत ही नहीं।’

कुमारी अभी तक सिर नीचे किए बैठी थी। चपला के बातचीत की आवाज सुन चौंक कर उसने सिर उठाया। कुमार को देखते ही हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई और आँखों से आँसू बहाने लगी।

कुँवर वीरेंद्रसिंह ने कहा - ‘कुमारी तुम थोड़े दिन और सब्र करो। तिलिस्म टूट गया, थोड़ा बाकी है। कई सबबों से मुझे यहाँ आना पड़ा, अब मैं फिर उसी तिलिस्म की तरफ जाऊँगा।’

चपला – ‘कुमारी कहती हैं कि मेरा दिल यह कह रहा है कि इन दिनों या तो मेरी मुहब्बत आपके दिल से कम हो गई है या फिर मेरी जगह किसी और ने दखल कर ली। मुद्दत से इस जगह तकलीफ उठा रही हूँ जिसका ख्याल मुझे कभी भी न था मगर कई दिनों से यह नया ख्याल जी में पैदा हो कर मुझे बेहद सता रहा है।’

चपला इतना कह के चुप हो गई। तेजसिंह ने मुस्कुराते हुए कुमार की तरफ देखा और बोले - ‘क्यों, कहो तो भंडा फोड़ दूँ।’

कुमार इसके जवाब में कुछ कह न सके, आँखों से आँसू की बूँदे गिरने लगीं और हाथ जोड़ के उनकी तरफ देखा। हँस कर तेजसिंह ने कुमार के जुड़े हाथ छुड़ा दिए और उनकी तरफ से खुद चपला को जवाब दिया - ‘कुमारी को समझा दो कि कुमार की तरफ से किसी तरह का अंदेशा न करें, तुम्हारे इतना ही कहने से कुमार की हालत खराब हो गई।’

चपला – ‘आप लोग आज यहाँ किसलिए आए?’

तेजसिंह – ‘महाराज शिवदत्त को देखने आए हैं, वहाँ खबर लगी थी कि ये छूट कर चुनारगढ़ पहुँच गए।’

चपला – ‘किसी ऐयार ने सूरत बदली होगी, इन दोनों को तो मैं बराबर यहीं देखती रहती हूँ।’

तेजसिंह – ‘जरा मैं उनसे भी बातचीत कर लूँ।’

तेजसिंह और चपला की बातचीत महाराज शिवदत्त कान लगा कर सुन रहे थे। अब वे कुमार के पास आए, कुछ कहना चाहते थे कि ऊपर चंद्रकांता और चपला की तरफ देख कर चुप हो रहे।

तेजसिंह – ‘शिवदत्त, हाँ क्या कहने को थे, कहो रुक क्यों गए?’

शिवदत्त – ‘अब न कहूँगा।’

तेजसिंह – ‘क्यों?’

शिवदत्त – ‘शायद न कहने से जान बच जाए।’

तेजसिंह – ‘अगर कहोगे तो तुम्हारी जान कौन मारेगा?’

शिवदत्त – ‘जब इतना ही बता दूँ तो बाकी क्या रहा?’

तेजसिंह – ‘न बताओगे तो मैं तुम्हें कब छोडूँगा।’

शिवदत्त – ‘जो चाहो करो मगर मैं कुछ न बताऊँगा।’

इतना सुनते ही तेजसिंह ने कमर से खंजर निकाल लिया, साथ ही चपला ने ऊपर से आवाज दी - ‘नहीं, ऐसा मत करना।’ तेजसिंह ने हाथ रोक कर चपला की तरफ देखा।

चपला – ‘शिवदत्त के ऊपर खंजर खींचने का क्या सबब है?’

तेजसिंह – ‘यह कुछ कहने आए थे मगर तुम्हारी तरफ देख कर चुप हो गए, अब पूछता हूँ तो कुछ बताते नहीं, बस कहते हैं कि कुछ बोलूँगा तो जान चली जाएगी। मेरी समझ में नहीं आता कि यह क्या मामला है। एक तो इनके बारे में हम लोग आप ही हैरान थे, दूसरे कुछ कहने के लिए हम लोगों के पास आना और फिर तुम्हारी तरफ देख कर चुप हो रहना और पूछने से जवाब देना कि कहेंगे तो जान चली जाएगी इन सब बातों से तबीयत और परेशान होती है?’

चपला – ‘आजकल ये पागल हो गए हैं, मैं देखा करती हूँ कि कभी-कभी चिल्लाया और इधर-उधर दौड़ा करते हैं। बिल्कुल हालत पागलों की-सी पाई जाती है, इनकी बातों का कुछ ख्याल मत करो?’

शिवदत्त – ‘उल्टे मुझी को पागल बनाती है।’

तेजसिंह - (शिवदत्त से) ‘क्या कहा, फिर तो कहो?’

शिवदत्त ‘कुछ नहीं, तुम चपला से बातें करो, मैं तो आजकल पागल हो गया हूँ।’

देवीसिंह – ‘वाह, क्या पागल बने हैं।’

शिवदत्त – ‘चपला का कहना बहुत सही है, मेरे पागल होने में कोई शक नहीं।’

कुमार - ‘ज्योतिषी जी, जरा इन नई गढ़ंत के पागल को देखना।’

ज्योतिषी - (हँस कर) ‘जब आकाशवाणी हो ही चुकी कि ये पागल हैं तो अब क्या बाकी रहा?’

कुमार - ‘दिल में कई तरह के खुटके पैदा होते हैं।’

तेजसिंह – ‘इसमें जरूर कोई भारी भेद है। न मालूम वह कब खुलेगा, लाचारी यही है कि हम कुछ कर नहीं सकते।’

देवीसिंह – ‘हमारी उस्तादिन इस भेद को जानती हैं, मगर उनको अभी इस भेद को खोलना मंजूर नहीं।’

कुमार - ‘यह बिल्कुल ठीक है।’

देवीसिंह की बात पर तेजसिंह हँस कर चुप हो रहे। महाराज शिवदत्त भी वहाँ से उठ कर अपने ठिकाने जा बैठे।

तेजसिंह ने कुमार से कहा - ‘अब हम लोगों को लश्कर में चलना चाहिए। सुनते हैं कि हम लोगों के पीछे महाराज शिवदत्त ने लश्कर पर धावा मारा, जिससे बहुत कुछ खराबी हुई। मालूम नहीं पड़ता वह कौन शिवदत्त था, मगर फिर सुनने में आया कि शिवदत्त भी गायब हो गया। अब यहाँ आ कर फिर शिवदत्त को देख रहे हैं।’

कुमार - ‘इसमें तो कोई शक नहीं कि ये सब बातें बहुत ही ताज्जुब की हैं, खैर, तुमने जो कुछ जिसकी जुबानी सुना है साफ-साफ कहो।’

तेजसिंह ने अपने तीनों आदमियों का कुमार की खोज में लश्कर से बाहर निकलना, नौगढ़ राज्य में सुरेंद्रसिंह के दरबार में भेष बदले हुए पहुँच कर दो जासूसों की जुबानी लश्कर का हाल सुनना, महाराज जयसिंह और राजा सुरेंद्रसिंह का चुनारगढ़ पर चढ़ाई करना इत्यादि सब हाल कहा, जिसे सुन कुमार परेशान हो गए, खोह के बाहर चलने के लिए तैयार हुए। कुमारी चंद्रकांता से फिर कुछ बातें कर और धीरज दे आँखों से आँसू बहाते, कुँवर वीरेंद्रसिंह उस खोह के बाहर हुए।

शाम हो चुकी थी जब ये चारों खोह के बाहर आए। तेजसिंह ने देवीसिंह से कहा कि हम लोग यहाँ बैठते हैं तुम नौगढ़ जा कर सरकारी अस्तबल में से एक उम्दा घोड़ा खोल लाओ जिस पर कुमार को सवार कराके तिलिस्म की तरफ ले चलें, मगर देखो किसी को मालूम न हो कि देवीसिंह घोड़ा ले गए हैं।

देवीसिंह – ‘जब किसी को मालूम हो ही गया तो मेरे जाने से फायदा क्या?’

तेजसिंह – ‘कितनी देर में आओगे?’

देवीसिंह – ‘यह कोई भारी बात तो है नहीं जो देर लगेगी, पहर भर के अंदर आ जाऊँगा।’

यह कह कर देवीसिंह नौगढ़ की तरफ रवाना हुए, उनके जाने के बाद ये तीनों आदमी घने पेड़ों के नीचे बैठ बातें करने लगे।

कुमार - ‘क्यों ज्योतिषी जी, शिवदत्त का भेद कुछ न खुलेगा?’

ज्योतिषी – ‘इसमें तो कोई शक नहीं कि वह असल में शिवदत्त ही था जिसने कैद से छूट कर अपने दीवान के हाथ, आपके पास तोहफा भेज कर सुलह के लिए कहलाया था, और विचार से मालूम होता है कि वह भी असली शिवदत्त ही है जिसे आप इस वक्त खोह में छोड़ आए हैं, मगर बीच का हाल कुछ मालूम नहीं होता कि क्या हुआ।’

कुमार - ‘पिता जी ने चुनारगढ़ पर चढ़ाई की है, देखें इसका नतीजा क्या होता है। हम लोग भी वहाँ जल्दी पहुँचते तो ठीक था।’

ज्योतिषी – ‘कोई हर्ज नहीं, वहाँ बोलने वाला कौन है? आपने सुना ही है कि शिवदत्त फिर गायब हो गया, बल्कि उस पुरजे से जो उसके पलँग पर मिला, मालूम होता है फिर गिरफ्तार हो गया।’

तेजसिंह – ‘हाँ चुनारगढ़ को जीतने में कोई शक नहीं है, क्योंकि सामना करने वाला कोई नहीं, मगर उनके ऐयारों का खौफ जरा बना रहता है।’

कुमार - ‘बद्रीनाथ वगैरह भी गिरफ्तार हो जाते तो बेहतर था।’

तेजसिंह – ‘अबकी चल कर जरूर गिरफ्तार करूँगा।’

इसी तरह की बात करते इनको पहर-भर से ज्यादा गुजर गया। देवीसिंह घोड़ा ले कर आ पहुँचे जिस पर कुमार सवार हो तिलिस्म की तरफ रवाना हुए, साथ-साथ तीनों ऐयार पैदल बातें करते जाने लगे।

बयान - 14

कुमार के गायब हो जाने के बाद तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी उनकी खोज में निकले हैं। इस खबर को सुन कर महाराज शिवदत्त के जी में फिर बेईमानी पैदा हुई। एकांत में अपने ऐयारों और दीवान को बुला कर उसने कहा - ‘इस वक्त कुमार लश्कर से गायब हैं और उनके ऐयार भी उन्हें खोजने गए हैं, मौका अच्छा है, मेरे जी में आता है कि चढ़ाई करके कुमार के लश्कर को खतम कर दूँ और उस खजाने को भी लूट लूँ जो तिलिस्म में से उनको मिला है।’

इस बात को सुन दीवान तथा बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल ने बहुत कुछ समझाया कि आपको ऐसा न करना चाहिए क्योंकि आप कुमार से सुलह कर चुके हैं। अगर इस लश्कर को आप जीत ही लेंगे तो क्या हो जाएगा, फिर दुश्मनी पैदा होने में ठीक नहीं है इत्यादि बहुत-सी बातें कहके इन लोगों ने समझाया मगर शिवदत्त ने एक न मानी। इन्हीं ऐयारों में नाजिम और अहमद भी थे, जो शिवदत्त की राय में शरीक थे और उसे हमला करने के लिए उकसाते थे।

आखिर महाराज शिवदत्त ने कुँवर वीरेंद्रसिंह के लश्कर पर हमला किया और खुद मैदान में आ फतहसिंह सिपहलासार को मुकाबले के लिए ललकारा। वह भी जवांमर्द था, तुरंत मैदान में निकल आया और पहर भर तक खूब लड़ा, लेकिन आखिर शिवदत्त के हाथ से जख्मी हो कर गिरफ्तार हो गया।

सेनापति के गिरफ्तार होते ही फौज बेदिल होकर भाग गई। सिर्फ खेमा वगैरह महाराज शिवदत्त के हाथ लगा, तिलिस्मी खजाना उसके हाथ कुछ भी नहीं लगा क्योंकि तेजसिंह ने बंदोबस्त करके उसे पहले ही नौगढ़ भेजवा दिया था, हाँ तिलिस्मी किताब उसके कब्जे में जरूर पड़ गई जिसे पा कर वह बहुत खुश हुआ और बोला - ‘अब इस तिलिस्म को मैं खुद तोड़ कुमारी चंद्रकांता को उस खोह से निकाल कर ब्याहूँगा।’

फतहसिंह को कैद कर शिवदत्त ने जलसा किया। नाच की महफिल से उठ कर खास दीवानखाने में आ कर पलँग पर सो रहा। उसी रोज वह पलँग पर से गायब हुआ, मालूम नहीं कौन कहाँ ले गया, सिर्फ वह पुर्जा पलँग पर मिला जिसका हाल ऊपर लिख चुके हैं। उसके गायब होने पर फतहसिंह सिपहसालार भी कैद से छूट गया, उसकी आँख सुनसान जंगल में खुली। यह कुछ मालूम न हुआ कि उसको कैद से किसने छुड़ाया बल्कि उसके उन जख्मों पर जो शिवदत्त के हाथ से लगे थे, पट्टी भी बाँधी गई थी, जिससे बहुत आराम और फायदा मालूम होता था।

फतहसिंह फिर तिलिस्म के पास आए जहाँ उनके लश्कर के कई आदमी मिले बल्कि धीरे-धीरे वह सब फौज इकट्ठी हो गई, जो भाग गई थी। इसके बाद ही यह खबर लगी कि महाराज शिवदत्त को भी कोई गिरफ्तार कर ले गया।

अकेले फतहसिंह ने सिर्फ थोड़े से बहादुरों पर भरोसा कर चुनारगढ़ पर चढ़ाई कर दी। दो कोस गया होगा कि लश्कर लिए हुए महाराज जयसिंह के पहुँचने की खबर मिली। चुनारगढ़ का जाना छोड़, जयसिंह के इस्तकबाल (अगुआनी) को गया और उनका भी इरादा अपने ही-सा सुन उनके साथ चुनारगढ़ की तरफ बढ़ा।

जयसिंह की फौज ने पहुँच कर चुनारगढ़ का किला घेर लिया। शिवदत्त की फौज ने किले के अंदर घुस कर दरवाजा बंद कर लिया, फसीलों पर तोपें चढ़ा दीं और कुछ रसद का सामान कर फसीलों और बुर्जों पर लड़ाई करने लगे।

बयान - 15

चुनारगढ़ के पास दो पहाड़ियों के बीच के एक नाले के किनारे शाम के वक्त पंडित बद्रीनाथ, रामनारायण, पन्नालाल, नाजिम और अहमद बैठे आपस में बातें कर रहे हैं।

नाजिम – ‘क्या कहें हमारा मालिक तो बहिश्त में चला गया, तकलीफ उठाने को हम रह गए।’

अहमद - ‘अभी तक इसका पता नहीं लगा कि उन्हें किसने मारा।’

बद्रीनाथ – ‘उन्हें उनके पापों ने मारा और तुम दोनों की भी बहुत जल्द वही दशा होगी। कहने के लिए तुम लोग ऐयार कहलाते हो मगर बेईमान और हरामखोर पूरे दर्जे के हो, इसमें कोई शक नहीं।’

नाजिम – ‘क्या हम लोग बेईमान हैं?’

बद्रीनाथ – ‘जरूर, इसमें भी कुछ कहना है? जब तुम अपने मालिक महाराज जयसिंह के न हुए तो किसके होवोगे? आप भी गारत हुए, क्रूरसिंह की भी जान ली, और हमारे राजा को भी चौपट बल्कि कैद कराया। यही जी में आता है कि खाली जूतियाँ मार-मार कर तुम दोनों की जान ले लूँ।’

अहमद – ‘जुबान सँभाल कर बातें करो नहीं तो कान पकड़ के उखाड़ लूँगा।’

अहमद का इतना कहना था कि मारे गुस्से के बद्रीनाथ काँप उठे, उसी जगह से पत्थर का एक टुकड़ा उठा कर इस जोर से अहमद के सिर में मारा कि वह तुरंत जमीन सूँघ कर दोजख (नर्क) की तरफ रवाना हो गया। उसकी यह कैफियत देख नाजिम भागा मगर बद्रीनाथ तो पहले ही से उन दोनों की जान का प्यासा हो रहा था, कब जाने देता। बड़ा-सा पत्थर छागे में रख कर मारा जिसकी चोट से वह भी जमीन पर गिर पड़ा और पन्नालाल वगैरह ने पहुँच कर मारे लातों के भुरता करके उसे भी अहमद के साथ क्रूर की ताबेदारी को रवाना कर दिया। इन लोगों के मरने के बाद फिर चारों ऐयार उसी जगह आ बैठे और आपस में बातें करने लगे।

पन्नालाल - ‘अब हमारे दरबार की झँझट दूर हुई।’

बद्रीनाथ – ‘महाराज को जरा भी रंज न होगा।’

पन्नालाल - ‘किसी तरह गद्दी बचाने की फिक्र करनी चाहिए। महाराज जयसिंह ने चारों तरफ से आ घेरा है और बिना महाराज के फौज मैदान में निकल कर लड़ नहीं सकती।’

चुन्नीलाल – ‘आखिर किले में भी रह कर कब तक लड़ेंगे? हम लोगों के पास सिर्फ दो महीने के लायक गल्ला किले के अंदर है, इसके बाद क्या करेंगे।’

रामलाल – ‘यह भी मौका न मिला कि कुछ गल्ला बटोर कर रख लेते।’

बद्रीनाथ – ‘एक बात है, किसी तरह महाराज जयसिंह को उनके लश्कर से उड़ाना चाहिए, अगर वह हम लोगों की कैद में आ जाएँ तो मैदान में निकल कर उनकी फौज को भगाना मुश्किल न होगा।’

पन्नालाल - ‘जरूर ऐसा करना चाहिए, जिसका नमक खाया उसके साथ जान देना हम लोगों का धर्म है।’

रामलाल – ‘हमारे राजा ने भी तो बेईमानी पर कमर बाँधी है। बेचारे कुँवर वीरेंद्रसिंह का क्या दोष है?’

चुन्नीलाल – ‘चाहे जो हो मगर हम लोगों को मालिक का साथ देना जरूरी है।’

बद्रीनाथ – ‘नाजिम और अहमद ये ही दोनों हमारे राजा पर क्रूर ग्रह थे, सो निकल गए। अबकी दफा जरूर दोनों राजाओं में सुलह कराऊँगा, तब वीरेंद्रसिंह की चोबदारी नसीब होगी। वाह, क्या जवांमर्द और होनहार कुमार हैं?

पन्नालाल - ‘अब रात भी बहुत गई, चलो कोई ऐयारी करके महाराज जयसिंह को गिरफ्तार करें और गुप्त राह से किले में ले जा कर कैद करें।’

बद्रीनाथ – ‘हमने एक ऐयारी सोची है, वही ठीक होगी।’

पन्नालाल - ‘वह क्या?’

बद्रीनाथ – ‘हम लोग चल के पहले उनके रसोइए को फाँसें। मैं उसकी शक्ल बना कर रसोई बनाऊँ और तुम लोग रसोईघर के खिदमतगारों को फाँस कर उनकी शक्ल बना कर हमारे साथ काम करो। मैं खाने की चीजों में बेहोशी की दवा मिला कर महाराज को और बाद में उन लोगों को भी खिलाऊँगा जो उनके पहरे पर होंगे, बस फिर हो गया।’

पन्नालाल - ‘अच्छी बात है, तुम रसोइया बनो क्योंकि ब्राह्मण हो, तुम्हारे हाथ का महाराज जयसिंह खाएँगे तो उनका धर्म भी न जाएगा, इसका भी ख्याल जरूर होना चाहिए, मगर एक बात का ध्यान रहे कि चीजों में तेज बेहोशी की दवा न पड़ने पाए।’

बद्रीनाथ – ‘नहीं-नहीं, क्या मैं ऐसा बेवकूफ हूँ, क्या मुझे नहीं मालूम कि राजे लोग पहले दूसरे को खिला कर देख लेते हैं। ऐसी नरम दवा डालूँगा कि खाने के दो घंटे बाद तक बिल्कुल न मालूम पड़े कि हमने बेहोशी की दवा मिली हुई चीजें खाई हैं।

रामनारायण – ‘बस, यह राय पक्की हो गई, अब यहाँ से उठो।’

बयान - 16

राजा सुरेंद्रसिंह भी नौगढ़ से रवाना हो, दौड़े-दौड़े बिना मुकाम किए दो रोज में चुनारगढ़ के पास पहुँचे। शाम के वक्त महाराज जयसिंह को खबर लगी। फतहसिंह सेनापति को, जो उनके लश्कर के साथ थे, इस्तकबाल के लिए रवाना किया।

फतहसिंह की जुबानी राजा सुरेंद्रसिंह ने सब हाल सुना। सुबह होते-होते इनका लश्कर भी चुनारगढ़ पहुँचा और जयसिंह के लश्कर के साथ मिल कर पड़ाव डाला गया। राजा सुरेंद्रसिंह ने फतहसिंह को, महाराज जयसिंह के पास भेजा कि आ कर मुलाकात के लिए बातचीत करें।

फतहसिंह राजा सुरेंद्रसिंह के खेमे से निकल कुछ ही दूर गए थे कि महाराज जयसिंह के दीवान हरदयालसिंह सरदारों को साथ लिए परेशान और बदहवास आते दिखाई पड़े जिन्हें देख यह अटक गए, कलेजा धक-धक करने लगा। जब वे लोग पास आए तो पूछा - ‘क्या हाल है जो आप लोग इस तरह घबराए हुए आ रहे हैं?’

एक सरदार – ‘कुछ न पूछो बड़ी आफत आ पड़ी।’

फतहसिंह - (घबरा कर) ‘सो क्या?’

दूसरा सरदार – ‘राजा साहब के पास चलो, वहीं सब-कुछ कहेंगे।’

उन सभी को लिए हुए फतहसिंह राजा सुरेंद्रसिंह के खेमे में आए। कायदे के माफिक सलाम किया, बैठने के लिए हुक्म पा कर बैठ गए।

राजा सुरेंद्रसिंह को भी इन लोगों के बदहवास आने से खुटका हुआ। हाल पूछने पर हरदयालसिंह ने कहा - ‘आज बहुत सवेरे किले के अंदर से तोप की आवाज आई, जिसे सुन कर खबर करने के लिए मैं महाराज के खेमे में आया। दरवाजे पर पहरे वालों को बेहोश पड़े देख कर ताज्जुब मालूम हुआ मगर मैं बराबर खेमे के अंदर चला गया। अंदर जा कर देखा तो महाराज का पलँग खाली पाया। देखते ही जी सन्न हो गया, पहरे वालों को देख कर कविराज जी ने कहा इन लोगों को बेहोशी की दवा दी गई है, तुरंत ही कई जासूस महाराज का पता लगाने के लिए इधर-उधर भेजे गए मगर अभी तक कुछ भी खबर नहीं मिली।’

यह हाल सुन कर सुरेंद्रसिंह ने जीतसिंह की तरफ देखा, जो उनके बाईं तरफ बैठे हुए थे।

जीतसिंह ने कहा - ‘अगर खाली महाराज गायब हुए होते तो मैं कहता कि कोई ऐयार किसी दूसरी तरकीब से ले गया, मगर जब कई आदमी अभी तक बेहोश पड़े हैं तो विश्वास होता है कि महाराज के खाने-पीने की चीजों में बेहोशी की दवा दी गई। अगर उनका रसोइया आए तो पूरा पता लग सकता है।’ सुनते ही राजा सुरेंद्रसिंह ने हुक्म दिया कि महाराज के रसोइए हाजिर किए जाएँ।

कई चोबदार दौड़ गए। बहुत दूर जाने की जरूरत न थी, दोनों लश्करों का पड़ाव साथ ही साथ पड़ा था। चोबदार खबर ले कर बहुत जल्द लौट आए कि रसोइया कोई नहीं है। उसी वक्त कई आदमियों ने आ कर यह भी खबर दी कि महाराज के रसोइए और खिदमतगार लश्कर के बाहर पाए गए जिनको डोली पर लाद कर लोग यहाँ लिए आते हैं।

दीवान तेजसिंह ने कहा - ‘सब डोलियाँ बाहर रखी जाएँ, सिर्फ एक रसोइए की डोली यहाँ लाई जाए।’

बेहोश रसोइया खेमे के अंदर लाया गया, जिसे जीतसिंह लखलख सूँघा कर होश में लाए और उससे बेहोश होने का सबब पूछा।

जवाब में उसने कहा – ‘पहर रात गए हम लोगों के पास एक हलवाई खोमचा लिए हुए आया जो बोलने में बहुत ही तेज और अपने सौदे की बेहद तारीफ करता था, हम लोगों ने उससे कुछ सौदा खरीद कर खाया, उसी समय सिर घूमने लगा, दाम देने की भी सुधा न रही, इसके बाद क्या हुआ कुछ मालूम नहीं।’

यह सुन दीवान जीतसिंह ने कहा - ‘बस-बस, सब हाल मालूम हो गया, अब तुम अपने डेरे में जाओ।’ इसके बाद थोड़ा&सा लखलखा दे कर उन सरदारों को भी विदा किया और यह कह दिया कि इसे सूँघा कर आप उन लोगों को होश में लाइए, जो बेहोश हैं और दीवान हरदयालसिंह को कहा कि अभी आप यहीं बैठिए।

सब आदमी विदा कर दिए गए, राजा सुरेंद्रसिंह, जीतसिंह और दीवान हरदयालसिंह रह गए।

राजा सुरेंद्र - (दीवान जीतसिंह की तरफ देख कर) ‘महाराज को छुड़ाने की कोई फिक्र होनी चाहिए।’

जीतसिंह – ‘क्या फिक्र की जाए, कोई ऐयार भी यहाँ नहीं जिससे कुछ काम लिया जाए, तेजसिंह और देवीसिंह कुमार की खोज में गए हुए हैं, अभी तक उनका भी कुछ पता नहीं।’

राजा – ‘तुम ही कोई तरकीब करो।’

जीतसिंह – ‘भला मैं क्या कर सकता हूँ। मुद्दत हुई ऐयारी छोड़ दी। जिस रोज तेजसिंह को इस फन में होशियार करके सरकार के नजर किया उसी दिन सरकार ने ऐयारी करने से ताबेदार को छुट्टी दे दी, अब फिर यह काम लिया जाता है। ताबेदार को यकीन था कि अब जिंदगी भर ऐयारी की नौबत न आएगी, इसी ख्याल से अपने पास ऐयारी का बटुआ तक भी नहीं रखता।’

राजा – ‘तुम्हारा कहना ठीक है मगर इस वक्त दब जाना या ऐयारी से इनकार करना मुनासिब नहीं, और मुझे यकीन है कि चाहे तुम ऐयारी का बटुआ न भी रखते हो मगर उसका कुछ न कुछ सामान जरूर अपने साथ लाए होगे।’

जीतसिंह - (मुस्कराकर) ‘जब सरकार के साथ हैं और इस फन को जानते हैं तो सामान क्यों न रखेंगे।’

राजा – ‘तब फिर क्या सोचते हो, इस वक्त अपनी पुरानी कारीगरी याद करो और महाराज जयसिंह को छुड़ाओ।’

जीतसिंह – ‘जो हुक्म। (हरदयालसिंह की तरफ देख कर) आप एक काम कीजिए, इन बातों को जो इस वक्त हुई हैं छिपाए रहिए और फतहसिंह को ले कर शाम होने के बाद लड़ाई छेड़ दीजिए। चाहे जो हो मगर आज भर लड़ाई बंद न होने पाए यह काम आपके जिम्मे रहा।’

हरदयालसिंह – ‘बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा।’

जीतसिंह – ‘आप जा कर लड़ाई का इंतजाम कीजिए, मैं भी महाराज से विदा हो अपने डेरे जाता हूँ क्योंकि समय कम और काम बहुत है।’

दीवान हरदयालसिंह राजा सुरेंद्रसिंह से विदा हो अपने डेरे की तरफ रवाना हुए। दीवान जीतसिंह ने फतहसिंह को बुला कर लड़ाई के बारे में बहुत कुछ समझा&बुझा के विदा किया और आप भी हुक्म ले कर अपने खेमे में गए। पहले पूजा, भोजन इत्यादि से छुट्टी पाई, तब ऐयारी का सामान दुरुस्त करने लगे।

दीवान जीतसिंह का एक बहुत पुराना बूढ़ा खिदमतगार था जिसको ये बहुत मानते थे। इनका ऐयारी का सामान उसी के सुपुर्द रहा करता था। नौगढ़ से रवाना होते दफा अपना ऐयारी का असबाब दुरुस्त करके ले चलने का इंतजाम, इसी बूढ़े के सुपुर्द किया। इनको ऐयारी छोड़े मुद्दत हो चुकी थी मगर जब उन्होंने अपने राजा को लड़ाई पर जाते देखा और यह भी मालूम हुआ कि हमारे ऐयार लोग कुमार की खोज में गए है, शायद कोई जरूरत पड़ जाए, तब बहुत-सी बातों को सोच इन्होंने अपना सब सामान दुरुस्त करके साथ ले लेना ही मुनासिब समझा था। उसी बूढ़े खिदमतगार से ऐयारी का संदूक मँगवाया ओैर सामान दुरुस्त करके बटुए में भरने लगे। इन्होंने बेहोशी की दवाओं का तेल उतारा था, उसे भी एक शीशी में बंद कर बटुए में रख लिया। पहर दिन बाकी रहे तक सामान दुरुस्त कर एक जमींदार की सूरत बना अपने खेमे के बाहर निकल गए।

जीतसिंह लश्कर से निकल कर किले के दक्खिन की एक पहाड़ी की तरफ रवाना हुए और थोड़ी दूर जाने के बाद सुनसान मैदान पा कर एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गए। बटुए में से कलम-दवात और कागज निकाला और कुछ लिखने लगे जिसका मतलब यह था - ‘तुम लोगों की चालाकी कुछ काम न आई और आखिर मैं किले के अंदर घुस ही आया। देखो क्या ही आफत मचाता हूँ। तुम चारों ऐयार हो और मैं ऐयारी नहीं जानता इस पर भी तुम लोग मुझे गिरफ्तार नहीं कर सकते, लानत है तुम्हारी ऐयारी पर।’

इस तरह के बहुत से पुरजे लिख कर और थोड़ी-सी गोंद तैयार कर बटुए में रख ली और किले की तरफ रवाना हुए। पहुँचते-पहुँचते शाम हो गई, अस्तु किले के इधर-उधर घूमने लगे। जब खूब अँधेरा हो गया, मौका पा कर एक दीवार पर जो नीची और टूटी हुई थी, कमंद लगा कर चढ़ गए। अंदर सन्नाटा पा कर उतरे और घूमने लगे।

किले के बाहर दीवान हरदयालसिंह और फतहसिंह ने दिल खोल कर लड़ाई मचा रखी थी, दनादन तोपों की आवाजें आ रही थीं, किले की फौज बुर्जियों या मीनारों पर चढ़ कर लड़ रही थी और बहुत से आदमी भी दरवाजे की तरफ खड़े घबराए हुए लड़ाई का नतीजा देख रहे थे, इस सबब से जीतसिंह को बहुत कुछ मौका मिला।

उन पुरजों को जिन्हें पहले से लिख कर बटुए में रख छोड़ा था, इधर-उधर दीवारों और दरवाजों पर चिपकाना शुरू किया, जब किसी को आते देखते हट कर छिप रहते और सन्नाटा होने पर फिर अपना काम करते, यहाँ तक कि सब कागजों को चिपका दिया।

किले के फाटक पर लड़ाई हो रही है, जितने अफसर और ऐयार हैं सब उसी तरफ जुटे हुए हैं, किसी को यह खबर नहीं कि ऐयारों के सिरताज जीतसिंह किले के अंदर आ घुसे और अपनी ऐयारी की फिक्र कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि इतने लंबे-चौड़े किले में महाराज जयसिंह कहाँ कैद हैं इस बात का पता लगावें और उन्हें छुड़ावें, और साथ ही शिवदत्त के भी ऐयारों को गिरफ्तार करके लेते चलें, एक ऐयार भी बचने न पाए जो फँसे हुए ऐयारों को छुड़ाने की फिक्र करे या छुड़ाए।

बयान - 17

फतहसिंह सेनापति की बहादुरी ने किले वालों के छक्के छुड़ा दिए। यही मालूम होता था कि अगर इसी तरह रात-भर लड़ाई होती रही तो सवेरे तक किला हाथ से जाता रहेगा और फाटक टूट जाएगा। आश्चर्य में पड़े बद्रीनाथ वगैरह ऐयार इधर-उधर घबराए घूम रहे थे कि इतने में एक चोबदार ने आ कर गुल-शोर मचाना शुरू किया जिससे बद्रीनाथ और भी घबरा गए। चोबदार बिल्कुल जख्मी हो रहा था ओैर उसके चेहरे पर इतने जख्म लगे हुए थे कि खून निकलने से उसको पहचानना मुश्किल हो रहा था।

बद्रीनाथ - ‘(घबरा कर) ‘यह क्या, तुमको किसने जख्मी किया?’

चोबदार – ‘आप लोग तो इधर के ख्याल में ऐसा भूले हैं कि और बातों की कोई सुध ही नहीं। पिछवाड़े की तरफ से कुँवर वीरेंद्रसिंह के कई आदमी घुस आए हैं और किले में चारों तरफ घूम-घूम कर न मालूम क्या कर रहे हैं। मैंने एक का मुकाबिला भी किया मगर वह बहुत ही चालाक और फुर्तीला था, मुझे इतना जख्मी किया कि दो घंटे तक बदहोशो-हवास जमीन पर पड़ा रहा, मुश्किल से यहाँ तक खबर देने आया हूँ। आती दफा रास्ते में उसे दीवारों पर कागज चिपकाते देखा, मगर खौफ के मारे कुछ न बोला।’

पन्नालाल – ‘यह बुरी खबर सुनने में आई।’

बद्रीनाथ - ‘वे लोग कितने आदमी हैं, तुमने देखा है?’

चोबदार - ‘कई आदमी मालूम होते हैं मगर मुझे एक ही से वास्ता पड़ा था।’

बद्रीनाथ - ‘तुम उसे पहचान सकते हो?’

चोबदार - ‘हाँ, जरूर पहचान लूँगा क्योंकि मैंने रोशनी में उसकी सूरत बखूबी देखी है।’

बद्रीनाथ - ‘मैं उन लोगों को ढूँढ़ने चलता हूँ, तुम साथ चल सकते हो?’

चोबदार - ‘क्यों न चलूँगा, मुझे उसने अधमरा कर डाला था, अब बिना गिरफ्तार कराए कब चैन पड़ना है।

बद्रीनाथ - ‘अच्छा चलो।’

बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल चारों आदमी अंदर की तरफ चले, साथ-साथ जख्मी चोबदार भी रवाना हुआ। जनाने महल के पास पहुँच कर देखा कि एक आदमी जमीन पर बदहवास पड़ा है, एक मशाल थोड़ी दूर पर पड़ी हुई है जो कुछ जल रही है, पास ही तेल की कुप्पी भी नजर पड़ी, मालूम हो गया कि कोई मशालची है। चोबदार ने चौंक कर कहा - ‘देखो-देखो एक और आदमी उसने मारा।’ यह कह कर मशाल और कुप्पी झट से उठा ली और उसी कुप्पी से मशाल में तेल छोड़ उसके चेहरे के पास ले गया। बद्रीनाथ ने देख कर पहचाना कि यह अपना ही मशालची है। नाक पर हाथ रख के देखा, समझ गए कि इसे बेहोशी की दवा दी गई है।

चोबदार ने कहा - ‘आप इसे छोड़िए, चल कर पहले उस बदमाश को ढुँढ़िए, मैं यही मशाल लिए आपके साथ चलता हूँ। कहीं ऐसा न हो कि वे लोग महाराज जयसिंह को छुड़ा ले जाएँ।’

बद्रीनाथ ने कहा - ‘पहले उसी जगह चलना चाहिए जहाँ महाराज जयसिंह कैद हैं।’ सभी की राय यही हुई और सब उसी जगह पहुँचे। देखा तो महाराज जयसिंह कोठरी में हथकड़ी पहने लेटे हैं। चोबदार ने खूब गौर से उस कोठरी और दरवाजे को देख कर कहा - ‘नहीं, वे लोग यहाँ तक नहीं पहुँचे, चलिए दूसरी तरफ ढूँढ़े।’ चारों तरफ ढूँढ़ने लगे। घूमते-घूमते दीवारों और दरवाजों पर सटे हुए कई पुर्जे दिखे जिसे पढ़ते ही इन ऐयारों के होश जाते रहे, सोच ही रहे थे कि चोबदार चिल्ला उठा और एक कोठरी की तरफ इशारा करके बोला - ‘देखो-देखो, अभी एक आदमी उस कोठरी में घुसा है, जरूर वही है जिसने मुझे जख्मी किया था।’ यह कह, उस कोठरी की तरफ दौड़ा मगर दरवाजे पर रुक गया, तब तक ऐयार लोग भी पहुँच गए।

बद्रीनाथ - (चोबदार से) ‘चलो, अंदर चलो।’

चोबदार - ‘पहले तुम लोग हाथों में खंजर या तलवार ले लो, क्योंकि वह जरूर वार करेगा।’

बद्रीनाथ - ‘हम लोग होशियार हैं, तुम अंदर चलो क्योंकि तुम्हारे हाथ में मशाल है।’

चोबदार - ‘नहीं बाबा, मैं अंदर नहीं जाऊँगा, एक दफा किसी तरह जान बची, अब कौन-सी कंबख्ती सवार है कि जान-बूझ कर भाड़ में जाऊँ।’

बद्रीनाथ - ‘वाह रे डरपोक! इसी जीवट पर महाराजों के यहाँ नौकरी करता है? ला मेरे हाथ में मशाल दे, मत जा अंदर।’

चोबदार - ‘लो मशाल लो, मैं डरपोक सही, इतने जख्म खाए अभी डरपोक ही रह गया, अपने को लगती तो मालूम होता, इतनी मदद कर दी यही बहुत है।’

इतना कह चोबदार मशाल और कुप्पी बद्रीनाथ के हाथ में दे कर अलग हो गया। चारों ऐयार कोठरी के अंदर घुसे। थोड़ी दूर गए होंगे कि बाहर से चोबदार ने किवाड़ बंद करके जंजीर चढ़ा दी, तब अपनी कमर से पथरी निकाल आग झाड़ कर बत्ती जलाई और चौखट के नीचे जो एक छोटी-सी बारूद की चुपड़ी हुई पलीती निकाली हुई थी, उसमें आग लगा दी। वह रस्सी बन कर सुरसुराती हुई अंदर घुस गई।

पाठक समझ गए होंगे कि यह चोबदार साहब कौन थे। ये ऐयारों के सिरताज जीतसिंह थे। चोबदार बन ऐयारों को खौफ दिला कर अपने साथ ले आए और घुमाते-फिराते वह जगह देख ली जहाँ महाराज जयसिंह कैद थे, फिर धोखा दे कर इन ऐयारों को उस कोठरी में बंद कर दिया जिसे पहले ही से अपने ढंग का बना रखा था।

इस कोठरी के अंदर पहले ही से बेहोशी की बारूद पाव भर के अंदाज कोने में रख दी थी और लंबी पलीती बारूद के साथ लगा कर, चौखट के बाहर निकाल दी थी।

पलीती में आग लगा और दरवाजे को उसी तरह बंद छोड़, उस जगह गए जहाँ महाराज जयसिंह कैद थे। वहाँ बिल्कुल सन्नाटा था, दरवाजा खोल बेड़ी और हथकड़ी काट कर उन्हें बाहर निकाला और अपना नाम बता कर कहा - ‘जल्द यहाँ से चलिए।’

जिधर से जीतसिंह कमंद लगा कर किले में आए थे उसी राह से महाराज जयसिंह को नीचे उतारा और तब कहा - ‘आप नीचे ठहरिए, मैंने ऐयारों को भी बेहोश किया है, एक-एक करके कमंद में बाँध कर उन लोगों को लटकाता जाता हूँ आप खोलते जाइए। अंत में मैं भी उतर कर आपके साथ लश्कर में चलूँगा।’ महाराज जयसिंह ने खुश हो कर इसे मंजूर किया।

जीतसिंह ने लौट कर उस कोठरी की जंजीर खोली जिसमें बद्रीनाथ वगैरह चारों ऐयारों को फँसाया था। अपने नाक में लखलखे से तर की हुई रूई डाल कोठरी के अंदर घुसे, तमाम कोठरी को धुएँ से भरा हुआ पाया, बत्ती जला बद्रीनाथ वगैरह बेहोश ऐयारों को घसीट कर बाहर लाए और किले की पिछली दीवार की तरफ ले जा कर एक-एक करके सभी को नीचे उतार आप भी उतर आए। चारो ऐयारो को एक तरफ छिपा, महाराज जयसिंह को लश्कर में पहुँचाया, फिर कई कहारों को साथ ले उस जगह जा, ऐयारों को उठवा लाए, हथकड़ी-बेड़ी डाल कर खेमे में कैद कर पहरा मुकर्रर कर दिया।

महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह गले मिले, जीतसिंह की बहुत कुछ तारीफ करके दोनों राजों ने कई इलाके उनको दिए, जिनकी सनद भी उसी वक्त मुहर करके उनके हवाले की गई।

रात बीत गई, पूरब की तरफ से धीरे-धीरे सफेदी निकलने लगी और लड़ाई बंद कर दी गई।

बयान - 18

तेजसिंह वगैरह ऐयारों के साथ कुमार खोह से निकल कर तिलिस्म की तरफ रवाना हुए। एक रात रास्ते में बिता कर दूसरे दिन सवेरे जब रवाना हुए तो एक नकाबपोश सवार दूर से दिखाई पड़ा, जो कुमार की तरफ ही आ रहा था। जब इनके करीब पहुँचा, घोड़े से उतर जमीन पर कुछ रख दूर जा खड़ा हुआ। कुमार ने वहाँ जा कर देखा तो तिलिस्मी किताब नजर पड़ी और एक खत, जिसे देख वे बहुत खुश हो कर तेजसिंह से बोले - ‘तेजसिंह, क्या करें, यह वनकन्या मेरे ऊपर बराबर अपने अहसान के बोझ डाल रही है। इसमें कोई शक नहीं कि यह उसी का आदमी है तो तिलिस्मी किताब मेरे रास्ते में रख दूर जा खड़ा हुआ है। हाय, इसके इश्क ने भी मुझे निकम्मा कर दिया है। देखें इस खत में क्या लिखा है।’

यह कह कर कुमार ने खत पढ़ा -

‘किसी तरह यह तिलिस्मी किताब मेरे हाथ लग गई जो तुम्हें देती हूँ। अब जल्दी तिलिस्म तोड़ कर कुमारी चंद्रकांता को छुड़ाओ। वह बेचारी बड़ी तकलीफ में पड़ी होगी। चुनारगढ़ में लड़ाई हो रही है, तुम भी वहीं जाओ और अपनी जवाँमर्दी दिखा कर फतह अपने नाम लिखाओ।

- तुम्हारी दासी...

वियोगिनी।’

कुमार - ‘तेजसिंह तुम भी पढ़ लो।’

तेजसिंह - (खत पढ़ कर) ‘न मालूम यह वनकन्या मनुष्य है या अप्सरा, कैसे-कैसे काम इसके हाथ से होते हैं।’

कुमार - (ऊँची साँस ले कर) ‘हाय, एक बला हो तो सिर से टले?’

देवीसिंह – ‘मेरी राय है कि आप लोग यहीं ठहरें, मैं चुनारगढ़ जा कर पहले सब हाल दरियाफ्त कर आता हूँ।’

कुमार – ‘ठीक है, अब चुनारगढ़ सिर्फ पाँच कोस होगा, तुम वहाँ की खबर ले आओ, तब हम चलें क्योंकि कोई बहादुरी का काम करके हम लोगों का जाहिर होना ज्यादा मुनासिब होगा।’

देवीसिंह चुनारगढ़ की तरफ रवाना हुए। कुमार को रास्ते में एक दिन और अटकना पड़ा, दूसरे दिन देवीसिंह लौट कर कुमार के पास आए और चुनारगढ़ की लड़ाई का हाल, महाराज जयसिंह के गिरफ्तार होने की खबर, और जीतसिंह की ऐयारी की तारीफ कर बोले - ‘लड़ाई अभी हो रही है, हमारी फौज कई दफा चढ़ कर किले के दरवाजे तक पहुँची मगर वहाँ अटक कर दरवाजा नहीं तोड़ सकी, किले की तोपों की मार ने हमारा बहुत नुकसान किया।’

इन खबरों को सुन कर कुमार ने तेजसिंह से कहा - ‘अगर हम लोग किसी तरह किले के अंदर पहुँच कर फाटक खोल सकते तो बड़ी बहादुरी का काम होता।’

तेजसिंह – ‘इसमें तो कोई शक नहीं कि यह बड़ी दिलावरी का काम है, या तो किले का फाटक ही खोल देंगे, या फिर जान से हाथ धोवेंगे।’

कुमार - ‘हम लोगो के वास्ते लड़ाई से बढ़ कर मरने के लिए और कौन-सा मौका है? या तो चुनारगढ़ फतह करेंगे या बैकुंठ की ऊँची गद्दी दखल करेंगे, दोनों हाथ लड्डू हैं।’

तेजसिंह – ‘शाबाश, इससे बढ़ कर और क्या बहादुरी होगी, तो चलिए हम लोग भेष बदल कर किले में घुस जाएँ। मगर यह काम दिन में नहीं हो सकता।’

कुमार - ‘क्या हर्ज है, रात ही को सही। रात-भर किले के अंदर ही छिपे रहेंगे, सुबह जब लड़ाई खूब रंग पर आएगी उसी वक्त फाटक पर टूट पड़ेंगे। सब ऊपर फसीलों पर चढ़े होंगे, फाटक पर सौ-पचास आदमियों में घुस कर दरवाजा खोल देना कोई बात नहीं है।’

देवीसिंह – ‘कुमार की राय बहुत सही है, मगर ज्योतिषी जी को बाहर ही छोड़ देना चाहिए।’

ज्योतिषी – ‘सो क्यों?’

देवीसिंह – ‘आप ब्राह्मण हैं, वहाँ क्यों ब्रह्महत्या के लिए आपको ले चलें, यह काम क्षत्रियों का है, आपका नहीं।’

कुमार - ‘हाँ ज्योतिषी जी, आप किले में मत जाइए।’

ज्योतिषी – ‘अगर मैं ऐयारी न जानता होता तो आपका ऐसा कहना मुनासिब था, मगर जो ऐयारी जानता है उसके आगे जवाँमर्दी और दिलावरी हाथ जोड़े खड़ी रहती हैं।’

देवीसिंह – ‘अच्छा चलिए फिर, हमको क्या, हमें तो और फायदा ही है।’

कुमार - ‘फायदा क्या?’

देवीसिंह - इसमें तो कोई शक नहीं ज्योतिषी जी हम लोगों के पूरे दोस्त हैं, कभी संग न छोड़ेंगे, अगर यह मर भी जाएँगे तो ब्रह्मराक्षस होंगे, और भी हमारा काम इनसे निकला करेगा।’

ज्योतिषी – ‘क्या हमारी ही अवगति होगी? अगर ऐसा हुआ तो तुम्हें कब छोडूँगा तुम्हीं से ज्यादा मुहब्बत है।’

इनकी बातों पर कुमार हँस पड़े और घोड़े पर सवार हो ऐयारों को साथ ले चुनारगढ़ की तरफ रवाना हुए। शाम होते-होते ये लोग चुनारगढ़ पहुँचे और रात को मौका पा कमंद लगा किले के अंदर घुस गए।

बयान - 19

दिन अनुमानतः पहर भर के आया होगा कि फतहसिंह की फौज लड़ती हुई, फिर किले के दरवाजे तक पहुँची। शिवदत्त की फौज बुर्जियों पर से गोलों की बौछार मार कर उन लोगों को भगाना चाहती थी कि यकायक किले का दरवाजा खुल गया और जर्द रंग की चार झंडियाँ दिखाई पड़ीं जिन्हें राजा सुरेंद्रसिंह, महाराज जयसिंह और उनकी कुल फौज ने दूर से देखा। मारे खुशी के फतहसिंह अपनी फौज के साथ धड़ाधड़ कर फाटक के अंदर घुस गया और बाद इसके धीरे-धीरे कुल फौज किले में दाखिल हुई। फिर किसी को मुकाबले की ताब न रही, साथ वाले आदमी चारों तरफ दिखाई देने लगे। फतहसिंह ने बुर्ज पर से महाराज शिवदत्त का सब्ज झंडा गिरा कर अपना जर्द झंडा खड़ा कर दिया और अपने हाथ से चोब उठा कर जोर से तीन चोट डंके पर लगाई जो उसी झंडे के नीचे रखा हुआ था। ‘क्रूम-धूम फतह’ की आवाज निकली जिसके साथ ही किले वालों का जी टूट गया और कुँवर वीरेंद्रसिंह की मुहब्बत दिल में असर कर गई।

अपने हाथ से कुमार ने फाटक पर चालीस आदमियों के सिर काटे थे, मगर ऐयारों के सहित वे भी जख्मी हो गए थे। राजा सुरेंद्रसिंह किले के अंदर घुसे ही थे कि कुमार, तेजसिंह और देवीसिंह झंडियाँ लिए चरणों पर गिर पड़े, ज्योतिषी जी ने आशीर्वाद दिया। इससे ज्यादा न ठहर सके, जख्मों के दर्द से चारों बेहोश हो कर जमीन पर गिर पड़े और बदन से खून निकलने लगा।

जीतसिंह ने पहुँच कर चारों के जख्मों पर पट्टी बाँधी, चेहरा धुलने से ये चारों पहचाने गए। थोड़ी देर में ये सब होश में आ गए। राजा सुरेंद्रसिंह अपने प्यारे लड़के को देर तक छाती से लगाए रहे और तीनों ऐयारों पर भी बहुत मेहरबानी की। महाराज जयसिंह कुमार की दिलावरी पर मोहित हो तारीफ करने लगे। कुमार ने उनके पैरों को हाथ लगाया और खुशी-खुशी दूसरे लोगों से मिले। हमारा कोई आदमी जनाने महल में नहीं गया बल्कि वहाँ इंतजाम करके पहरा मुकर्रर कर दिया गया।

कई दिन के बाद महाराज जयसिंह और राजा सुरेंद्रसिंह कुँवर वीरेंद्रसिंह को तिलिस्म तोड़ने की ताकीद करके खुशी-खुशी विजयगढ़ और नौगढ़ रवाना हुए। उनके जाने के बाद कुँवर वीरेंद्रसिंह अपने ऐयारों और कुछ फौज साथ ले तिलिस्म की तरफ रवाना हुए।

बयान - 20

तिलिस्म के दरवाजे पर कुँवर वीरेंद्रसिंह का डेरा खड़ा हो गया। खजाना पहले ही निकाल चुके थे, अब कुल दो टुकड़े तिलिस्म के टूटने को बाकी थे, एक तो वह चबूतरा जिस पर पत्थर का आदमी सोया था, दूसरे अजदहे वाले दरवाजे को तोड़ कर वहाँ पहुँचना जहाँ कुमारी चंद्रकांता और चपला थीं। तिलिस्मी किताब कुमार के हाथ लग ही चुकी थी, उसके कई पन्ने बाकी रह गए थे, आज बिल्कुल पढ़ गए। कुमारी चंद्रकांता के पास पहुँचने तक जो-जो काम इनको करने थे, सब ध्यान में चढ़ा लिए, मगर उस चबूतरे के तोड़ने की तरकीब किताब में न देखी जिस पर पत्थर का आदमी सोया हुआ था, हाँ उसके बारे में इतना लिखा था कि वह चबूतरा एक दूसरे तिलिस्म का दरवाजा है जो इस तिलिस्म से कहीं बढ़-चढ़ कर है और माल-खजाने की तो इंतहा नहीं कि कितना रखा हुआ है। वहाँ की एक-एक चीज ऐसे ताज्जुब की है कि जिसके देखने से बड़े-बड़े दिमाग वालों की अक्ल चकरा जाए। उसके तोड़ने की तरकीब दूसरी ही है, ताली भी उसकी उसी आदमी के कब्जे में है जो उस पर सोया हुआ है।’

कुमार ने ज्योतिषी जी की तरफ देख कर कहा - ‘क्यों ज्योतिषी जी, क्या वह चबूतरे वाला तिलिस्म मेरे हाथ से न टूटेगा?’

ज्योतिषी – ‘देखा जाएगा, पहले आप कुमारी चंद्रकांता को छुड़ाइए।’

कुमार - ‘अच्छा चलिए, यह काम तो आज ही खत्म हो जाए।’

तीनों ऐयारों को साथ ले कर कुँवर वीरेंद्रसिंह उस तिलिस्म में घुसे। जो कुछ उस तिलिस्मी किताब में लिखा हुआ था खूब ख्याल कर लिया और उसी तरह काम करने लगे।

खँडहर के अंदर जा कर उस मालूमी दरवाजे को खोला जो उस पत्थर वाले चबूतरे के सिरहाने की तरफ था। नीचे उतर कर कोठरी में से होते हुए उसी बाग में पहुँचे जहाँ खजाने और बारहदरी के सिंहासन के ऊपर का वह पत्थर हाथ लगा था, जिसको छू कर चपला बेहोश हो गई थी और जिसके बारे में तिलिस्मी किताब में लिखा हुआ था कि वह एक डिब्बा है और उसके अंदर एक नायाब चीज रखी है।

चारों आदमी नहर के रास्ते गोता मार कर उसी तरह बाग के उस पार हुए जिस तरह चपला उसके बाहर गई थी और उसी की तरह पहाड़ी के नीचे वाली नहर के किनारे-किनारे चलते हुए उस छोटे-से दालान में पहुँचे जिसमें वह अजदहा था जिसके मुँह में चपला घुसी थी।

एक तरफ दीवार में आदमी के बराबर काला पत्थर जड़ा हुआ था। कुमार ने उस पर जोर से लात मारी, साथ ही वह पत्थर पल्ले की तरह खुल के बगल में हो गया और नीचे उतरने की सीढ़ियाँ दिखाई पड़ीं।

मशाल वाले चारों आदमी नीचे उतरे, यहाँ उस अजदहे की बिल्कुल कारीगरी नजर पड़ी। कई चरखी और पुरजों के साथ लगी हुई भोजपत्र की बनी मोटी भाथी उसके नीचे थी जिसको देखने से कुमार समझ गए कि जब अजदहे के सामने वाले पत्थर पर कोई पैर रखता है तो यह भाथी चलने लगती है और इसकी हवा की तेजी सामने वाले आदमी को खींच कर अजदहे के मुँह में डाल देती है।

बगल में एक खिड़की थी जिसका दरवाजा बंद था। सामने ताली रखी हुई थी जिससे ताला खोल कर चारों आदमी उसके अंदर गए। यहाँ से वे लोग छत पर चढ़ गए जहाँ से गली की तरह एक खोह दिखाई पड़ी।

किताब से पहले ही मालूम हो चुका था कि यही खोह की-सी गली उस दालान में जाने के लिए राह है, जहाँ चपला और चंद्रकांता बेबस पड़ी हैं।

अब कुमारी चंद्रकांता से मुलाकात होगी, इस ख्याल से कुमार का जी धड़कने लगा, चपला की मुहब्बत ने तेजसिंह के पैर हिला दिए। खुशी-खुशी ये लोग आगे बढ़े। कुमार सोचते जाते थे कि आज जैसे निराले में कुमारी चंद्रकांता से मुलाकात होगी वैसी पहले कभी न हुई थी। मैं अपने हाथों से उसके बाल सुलझाउँगा, अपनी चादर से उसके बदन की गर्द झड़ूँगा। हाय, बड़ी भारी भूल हो गई, कि कोई धोती उसके पहनने के लिए नहीं लाए, किस मुँह से उसके सामने जाऊँगा, वह फटे कपड़ों में कैसी दु:खी होगी? मैं उसके लिए कोई कपड़ा नहीं लाया इसलिए वह जरूर खफा होगी और मुझे खुदगर्ज समझेगी। नहीं-नहीं वह कभी रंज न होगी। उसको मुझसे बड़ी मुहब्बत है, देखते ही खुश हो जाएगी, कपड़े का कुछ ख्याल न करेगी। हाँ, खूब याद पड़ा, मैं अपनी चादर अपनी कमर में लपेट लूँगा और अपनी धोती उसे पहिनाऊँगा, इस वक्त का काम चल जाएगा। (चौंक कर) यह क्या, सामने कई आदमियों के पैरों की चाप सुनाई पड़ती है? शायद मेरा आना मालूम करके कुमारी चंद्रकांता और चपला आगे से मिलने को आ रही हैं। नहीं-नहीं, उनको क्या मालूम कि मैं यहाँ आ पहुँचा।

ऐसी-ऐसी बातें सोचते और धीरे-धीरे कुमार बढ़ रहे थे कि इतने में ही आगे दो भेड़ियों के लड़ने और गुर्राने की आवाज आई जिसे सुनते ही कुमार के पैर दो-दो मन के हो गए। तेजसिंह की तरफ देख कर कुछ कहना चाहते थे मगर मुँह से आवाज न निकली। चलते-चलते उस दालान में पहुँचे जहाँ नीचे खोह के अंदर से कुमारी और चपला को देखा था।

पूरी उम्मीद थी कि कुमारी चंद्रकांता और चपला को यहाँ देखेंगे, मगर वे कहीं नजर न आईं, हाँ जमीन पर पड़ी दो लाशें जरूर दिखाई दीं जिनमें मांस बहुत कम था, सिर से पैर तक नुची हड्डियाँ दिखाई देती थीं, चेहरे किसी के भी दुरुस्त न थे।

इस वक्त कुमार की कैसी दशा थी वे ही जानते होंगे। पागलों की-सी सूरत हो गई, चिल्ला कर रोने और बकने लगे - ‘हाय चंद्रकांता, तुझे कौन ले गया? नहीं, ले नहीं बल्कि मार गया। जरूर इन्हीं भेड़ियों ने तुझे मुझसे जुदा किया जिनकी आवाज यहाँ पहुँचने के पहले मैंने सुनी थी। हाय। वह भेड़िया बड़ा ही बेवकूफ था जो उसने तेरे खाने में जल्दी की, उसके लिए तो मैं पहुँच ही गया था, मेरा खून पी कर वह बहुत खुश होता क्योंकि इसमें तेरी मुहब्बत की मिठास भरी हुई है। तेरे में क्या बचा था, सूख के पहले ही काँटा हो रही थी। मगर क्या सचमुच तुझे भेड़िया खा गया या मैं भूलता हूँ? क्या यह दूसरी जगह तो नहीं है?

नहीं-नहीं, वह सामने दुष्ट शिवदत्त बैठा है। हाय अब मैं जी कर क्या करूँगा, मेरी जिंदगी किस काम आएगी, मैं कौन-सा मुँह ले कर महाराज जयसिंह के सामने जाऊँगा, जल्दी मत करो, धीरे-धीरे चलो, मैं भी आता हूँ, तुम्हारा साथ मरने पर भी न छोडूँगा। आज नौगढ़, विजयगढ़ और चुनारगढ़ तीनों राज्य ठिकाने लग गए। मैं तो तुम्हारे पास आता ही हूँ, मेरे साथ ही और कई आदमी आएँगे जो तुम्हारी खिदमत के लिए बहुत होंगे। हाय, इस सत्यानाशी तिलिस्म ने, इस दुष्ट शिवदत्त ने, इन भेड़ियों ने, आज बड़े-बड़े दिलावरों को खाक में मिला दिया। बस हो गया, दुनिया इतनी ही बड़ी थी, अब खतम हो गई। हाँ-हाँ, दौड़ी क्यों जाती हो, लो मैं भी आया।’

इतना कह और पहाड़ी के नीचे की तरफ देख कुमार कूद कर अपनी जान देना ही चाहते थे और तीनों ऐयार सन्न खड़े देख ही रहे थे कि यकायक भारी आवाज के साथ दालान के एक तरफ की दीवार फट गई और उसमें से एक वृद्ध महापुरुष ने निकल कर कुमार का हाथ पकड़ लिया।

कुमार ने फिर कर देखा। लगभग अस्सी वर्ष की उम्र, लंबी-लंबी सफेद रूई की तरह दाढ़ी नाभी तक आई हुई, सिर की लंबी जटा जमीन तक लटकती हुई, तमाम बदन में भस्म लगाए, लाल और बड़ी-बड़ी आँखें निकाले, दाहिने हाथ में त्रिशूल उठाए, बाएँ हाथ से कुमार को थामे, गुस्से से बदन कँपाते, तापसी रूप शिव जी की तरह दिखाई पड़े जिन्होंने कड़क कर आवाज दी और कहा - ‘खबरदार जो किसी को विधवा करेगा।’

यह आवाज इस जोर की थी कि सारा मकान दहल उठा, तीनों ऐयारों के कलेजे काँप उठे। कुँवर वीरेंद्रसिंह का बिगड़ा हुआ दिमाग फिर ठिकाने आ गया। देर तक उन्हें सिर से पैर तक देख कर कुमार ने कहा - ‘मालूम हुआ, मैं समझ गया कि आप साक्षात शिव जी या कोई योगी हैं, मेरी भलाई के लिए आए हैं। वाह-वाह खूब किया जो आ गए। अब मेरा धर्म बच गया, मैं क्षत्रिय होकर आत्महत्या न कर सका। एक हाथ आपसे लड़ूँगा और इस अद्भुत त्रिशूल पर अपनी जान न्यौछावर करूँगा? आप जरूर इसीलिए आए हैं, मगर महात्मा जी, यह तो बताइए कि मैं किसको विधवा करूँगा? आप इतने बड़े महात्मा होकर झूठ क्यों बोलते हैं? मेरा है कौन? मैंने किसके साथ शादी की है? हाय, कहीं यह बात कुमारी सुनती तो उसको जरूर यकीन हो जाता कि ऐसे महात्मा की बात भला कौन काट सकता है?’

वृद्ध योगी ने कड़क कर कहा - ‘क्या मैं झूठा हूँ? क्या तू क्षत्रिय है? क्षत्रियों के यही धर्म होते हैं? क्यों वे अपनी प्रतिज्ञा को भूल जाते हैं? क्या तूने किसी से विवाह की प्रतिज्ञा नहीं की? ले देख, पढ़ किसका लिखा हुआ है?’

यह कह कर अपनी जटा के नीचे से एक खत निकाल कर कुमार के हाथ में दे दिया।

पढ़ते ही कुमार चौंक उठे। ‘हैं, यह तो मेरा ही लिखा है। क्या लिखा है? ‘मुझे सब मंजूर है।’ इसके दूसरी तरफ क्या लिखा है? हाँ, अब मालूम हुआ, यह तो उस वनकन्या का खत है। इसी में उसने अपने साथ ब्याह करने के लिए मुझे लिखा था, उसके जवाब में मैंने उसकी बात कबूल की थी। मगर खत इनके हाथ कैसे लगा? वनकन्या का इनसे क्या वास्ता?’

कुछ ठहर कर कुमार ने पूछा - ‘क्या इस वनकन्या को आप जानते हैं?’

इसके जवाब में फिर कड़क के वृद्ध योगी बोले - ‘अभी तक जानने को कहता है? क्या उसे तेरे सामने कर दूँ?’

इतना कह कर एक लात जमीन पर मारी, जमीन फट गई और उसमें से वनकन्या ने निकल कर कुमार के पाँव पकड़ लिए।


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